बंगाईगांव। दिगंबर जैन 105 श्रमणि आर्यिका विदुषी श्री माताजी ने कहा कि अज्ञानता मिटानी है तो अपनी गल्तियों को स्वीकार करो। संसार के प्रत्येक इंसान को परमात्मा ने ज्ञान की शक्ति दी है। लेकिन उसका सदुपयोग करना इंसान के ऊपर निर्भर करता है। प्रवक्ता रोहित छाबड़ा ने बताया कि आर्यिका शनिवार को बड़े बाजार स्थित श्री 1008 शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिर में सुबह प्रवचन दे रही थी। उन्होंने कहा कि अपने अंदर की अज्ञानता को दूर करने के लिए हमें अंदर से जागने की आवश्यकता है। पढ़ने से ज्ञान तो प्राप्त होता है, लेकिन बुरी सोच रखने वाला व्यक्ति सद्ज्ञानी नहीं हो सकता। अच्छी सोच, अच्छी मानसिकता, अच्छा व्यवहार और अच्छे खान-पान से हमारा सद्ज्ञान बढ़ता है तथा बुद्धि का सदुपयोग करने से ज्ञान बढ़ता है। ज्ञान अनुभव करने और सीखने से होता है। उन्होंने कहा कि गलत को गलत समझकर स्वीकार करने वाला ही अपनी गल्तियों को सुधार सकता है। अहंकार के साथ काम करना अज्ञानता है। उन्होंने कहा कि जीवन में अच्छे काम सद्ज्ञान से करेंगे तो आनंद आएगा और विपरीत परिस्थितियों में भी तुम प्रसन्न रहोगे।
अपने व्यक्त्व मे आगे बताते हुए कहा कि जैन तीर्थनकर भगवान महावीर त्याग, समर्पण और सदमार्ग का दूसरा नाम है। जैन धर्म में साधुत्व यानी कठिन साधना का पथ, यहीं से संत का संतत्व निखरकर कुंदन बनता है। इसी कठिन साधना का एक पथ है केशलोंच। एक बाल टूटते ही हम कराह उठते हैं और बाल तोड़ बीमार कर देता है। वहीं, जैन संत अपने हाथों से न सिर्फ सिर के बाल, अपितु मूंछ और दाढ़ी के बाल भी एक-एक पल भर में तोड़ देते हैं। ऐसा नहीं कि एक बार की विधि हैं। साल में तीन से चार बार केशलोंच की परम्परा होती है।
उन्होंने बताया की केशलोंच जैन धर्म की कठिन तपस्या का अनिवार्य हिस्सा है।जैन संत अपने हाथों से घास फूस की तरह सिर, दाढ़ी व मूंछ के बाल को आसानी से उखाड़ देते हैं। यह पल देखते ही कई श्रद्धालु भाव विभोर हो जाते है। जैन साधु की कठिन तपस्या में केशलोंच भी मूलगुण में शामिल है। बताते हैं कि इससे जैन साधु में शरीर की सुंदरता का मोह खत्म हो जाता है। जैन साधु जब केशलोंच करते है तो आत्मा की सुंदरता कई गुना बढ़ जाती है।अपने आत्म सौंदर्य बढ़ाने के लिए कठिन साधना करते हैं। इससे संयम का पालन भी होता है।
आर्यिका विदुषी श्री ने कहा की जैन साधु सिर, दाढ़ी व मूंछ के बालों को निकालते समय कंडे की राख का उपयोग करते हैं ताकि खून निकलने पर रोग न फैले। पसीने के दौरान हाथ फिसल न जाए। केशलोंच करने के दौरान बालों को हाथों से खींचकर निकाला जाता है। अपने हाथों से बालों को उखाड़कर दिगंबर जैन संत इस बात का परिचय देते है कि जैन धर्म कहने का नहीं सहने का धर्म है।
साधना शक्ति का परीक्षण है केशलोंच
श्री महावीर भगवान कहते हैं कि हाथों से बालों को उखाडऩा शरीर को कष्ट देना नहीं है। बल्कि शरीर की उत्कृष्ट साधना शक्ति का परीक्षण है। इससे कर्मो की निर्जरा होती है। केशलोंच तपस्या का अनिवार्य हिस्सा है।
उन्होंने बताया की किसी भी मौसम में खड़े-खड़े ही करते हैं जैन साधु भोजन, उन्होंने बताया की बालों को उखाडऩे से बालों में होने वाले जीवों का जो घात हुआ है, उन्हें कष्ट हुआ है, उसका प्रायश्चित भी जैन संत करते हैं। आचार्य, उपाध्याय व साधु केशलोंच के दिन उपवास रहते हैं। इस दिन अन्न व जल का ग्रहण नहीं करते हैं। जैन साधु कैसा भी मौसम भी पडग़ाहन के बाद खड़े खड़े ही भोजन करते है। कई साधु केशलोंच के दिन मौन भी रखते हैं।
दो से चार माह में एक बार करते है केशलोंच, तपस्या का अनिवार्य हिस्सा
उन्होंने बताया कि जैन संत एक केशलोंच करने के बाद दूसरा केशलोंच दो माह व अधिकतम चार माह में करते हैं। यह इनकी तपस्या का अनिवार्य हिस्सा है। दीक्षा लेने के बाद हर साधु को इस कठिन तपस्या से गुजरना होता है। केशलोंच करने के पीछे एक कारण यह भी है कि साधु किसी पर अवलंबित नहीं होते है। वह स्वावलंबी होते है। साधु शरीर की सुंदरता को नष्ट करने और अहिंसा धर्म का पालन करने के लिए केशलोंच करते है। लेकिन जब यह केशलोंच करते है तो इनके चेहरे पर मुस्कुराहट देखने को मिलती है। वहीं दूसरी तरफ श्रद्धालुओं का चेहरा भाव विभोर हो जाता है। बालों को उखाड़ते समय संत को उफ तक करने की इजाजत नहीं है। जैन संत का केशलोंच कार्यक्रम कई बार तो पहले से निर्धारित होता है, लेकिन कई साधु आकस्मिक भी करते हैं। साधु संत के केशलोंच कार्यक्रम को देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु भी पहुंचते हैं।
— रोहित कुमार छाबड़ा