आज उत्तम आकिंचन्य धर्म का दिन है। आकिंचन्य यानि — आ + किंचन = कुछ भी मेरा नहीं है। मैं शुद्धात्मा हूँ इसके अलावा जो कुछ भी है वो सब पर है , कुछ भी मेरा नहीं है। इसीलिये तो जिनवाणी में इनको परिग्रह की संज्ञा दी गई है।
तब प्रश्न उठता है परिग्रह यानि क्या ?
पहले परिग्रह शब्द का अर्थ देखें — पर वस्तु का ग्रहण यानि मैं शुद्धात्मा हूँ और मेरे अलावा सब पर हैं, सो उन सबको अपना मानना ही परिग्रह है। इसीलिये जिनवाणी में आत्मा के अलावा समस्त पर पदार्थों यहाँ तक कि पर के निमित्त से होने वाले समस्त परभावों को भी परिग्रह कहा है।
“आचार्य उमास्वामी” के अनुसार – मूर्च्छा परिग्रहः अर्थात् मूर्च्छा यानि आसक्ति। अर्थात् मोह कर्म के उदय से पर पदार्थों में जो ममत्व का भाव है उसे मूर्च्छा कहते हैं , वही परिग्रह है।
“राजवार्तिक”के अनुसार – ममेदं वस्तु अहम स्वामीत्यात्मात्मीयाभिमानः संकल्पः परिग्रह इत्युच्यते।
अर्थात् यह मेरा है मैं इसका स्वामी हूँ , इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह है।
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि जिसके पास जितना ज्यादा वैभव वो उतना ही परिग्रही। पर ऐसा नहीं है , यदि मात्र वस्तु के संग्रह को परिग्रह मानेगें तो तिर्यंच गति के जीव अपरिग्रही और चक्रवर्ती महान परिग्रही ठहरेंगें। या जिनके पास पहनने ओढने , खाने-पीने आदि का कुछ भी सामान नहीं है तो वो तो सब अपरिग्रही ठहरेंगें , जो सिरे से ही गलत होगा।
इसलिये सिद्ध होता है कि पर वस्तु नहीं , पर वस्तु में मूर्च्छा यानि अपना मानने का भाव ही परिग्रह है।
आगम में परिग्रह अंतरंग और बहिरंग के भेद से 24 प्रकार का बताया गया है।
मिथ्यात्व ,राग ,द्वेष, क्रोध , मान,माया , लोभ , हास्य , रति , अरति , शोक , भय , जगुप्सा , वेद ( स्त्रीवेद , पुरूषवेद , नपुंसकवेद ) ये 14 प्रकार का अंतरंग परिग्रह और क्षेत्र , वास्तु ( कोठी ,मकान आदि ), सोना , चाँदी , धन, धान्य , दास , दासी , वस्त्र और बर्तन ये 10 प्रकार का बहिरंग परिग्रह है।
वास्तव में उत्तम आकिंचन्य धर्म के धारी तो मुनिराज हैं। जिनके पास तिल मात्र भी परिग्रह नहीं होता।
तो फिर हम गृहस्थों के लिये आकिंचन्य धर्म की चर्चा क्यों? क्यों कि हम सब भी सुखी होना चाहते हैं। और परिग्रह दुख का कारण है , इसलिये श्रावकों भी परिग्रह त्याग की प्रेरणा दी गई है।
श्रावक भी अंतरंग परिणामों में विरक्ति का भाव रखते हुये बाह्य परिग्रह में अपनी आवश्यकतानुसार रखकर शेष परिग्रह का त्याग करते हैं।
लेकिन अंतरंग परिग्रह के त्याग के बिना बाह्य परिग्रह के त्याग का कोई मूल्य नहीं है।इसलिये बाह्य परिग्रह के साथ साथ अंतरंग परिग्रह के त्याग का पुरूषार्थ प्रति समय करना चाहिये। क्यों कि अंतर से विरक्ति आने पर बाह्य परिग्रह को छोड़ना नहीं पड़ता वो तो सहज छूट ही जाता है।
वास्तव में देखा जाये तो समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह ही है , समस्त खोटे ध्यान परिग्रह से ही होते हैं। परिग्रह में ममता के कारण ही व्यक्ति अन्याय अनीति के मार्ग पर चलता है। परिग्रह को जोड़ने के लिये हिंसा करता है , व्यापारादि में झूठ बोलता है , टैक्स आदि की चोरी करता है , कुशील सेवन भी करता है , क्रोध , मान, माया, लोभादि कषायों में आसक्त रहता है। यदि पापों से छूटना चाहते हैं तो सबसे पहले पर पदार्थों में ममत्व का परिणाम छोडना चाहिये।
लेकिन मजे की बात तो ये है कि हम अज्ञानी जीव हिंसा , झूठ, चोरी और कुशील को तो पाप मानते पर परिग्रह को बहुत अच्छा मानते हैं , तभी तो जिसके पास जितना ज्यादा वैभव और पैसा हो उसको उतना ही बड़ा और सुखी मानते हैं। परिग्रह को पाप मानने के लिये तो हम तैयार ही नहीं है। तभी तो दिन रात एक करते हैं किसके लिये ? परिग्रह के लिये — जो पाप माना जाता है। भाई ! विचार करने योग्य बात है।
यदि आज विचार नहीं किया तो फिर कब करेंगें ? क्यों कि ये मनुष्य भव तो हाथ से चला जायेगा फिर सिवाय पछताने के और कुछ नहीं बचेगा। इसीलिये तो कहते हैं –
“काल करे सो आज कर ,
आज करे सो अब।
पल में परलै होयगी ,
बहुरि करेगा कब ??”
हम सभी परिग्रह का परिमाण करते हुये शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण अपरिग्रही बनने की भावना भायें , जिससे उत्तम आकिंचन्य धर्म को जीवन में धारण कर सके।
हम सभी उत्तम आकिंचन्य धर्म को धारण करें ऐसी मंगल भावना है।
— नीरज जैन, दिलशाद ग्राडन दिल्ली