गुड़गांव। भारतीय संस्कृति का मेरूदंड है पर्व और त्योहार। जैन धर्म संस्कृति में पर्व की अपेक्षा स्वयं को सुधारने के लिए ही है। प्रत्येक मनुष्य की मनोदशा दो रूप में चलती है। यहा सत्य है तो असत्य भी है, धर्म है तो अधर्म भी है, पाप है तो पुण्य भी है। अर्थात मनुष्य मे नकारात्मक दृष्टि कोण है तो सकारात्मक दृष्टिकोण भी विद्यमान है। हमें अपने नकारात्मक दृष्टिकोण पर विजय प्राप्त करनी है। यही लक्ष्य है विजयदशमी आयोजित करने का। उक्त उदगार श्रमण मुनि श्री 108 विशोक सागर ने विजयदशमी के पावन पर्व पर जैन बारादरी में उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित करते हुए कहें। वह यहां श्री दिगम्बर जैन बारादरी में अपने चार्तुमास काल में विराजित है।
मुनिश्री ने कहा कि भारत के समृद्ध इतिहास में अनेकों दृष्टांतों के माध्यम से पर्व-त्यौहारों की महत्ता समझायी गई है। लोकमानस में रच बस गयी रामायण की अमर कहानी का सार भी यही है कि हमें मर्यादा पुरूषोतम भगवान श्री राम का अनुसरण करना चाहिए। यद्धपि श्री राम एवं रावण में बहुत सी समानतायें हैं यथा दोनों ज्ञान का अथाह भण्डार है, दोनों परमवीर हैं, दोनों भगवान के भक्त हैं, परन्तु जहां श्रीराम धर्म का अनुसरण कर विजयी रहें वहीं, रावण अपने अहंकार के कारण पतन को प्राप्त हुआ।
यद्धपि रावण धनबल, सैन्यबल एवम तपोबल में श्रीराम से श्रेष्ठ है। रावण के अंहकार के कारण तथा धर्म का साथ देने के लिए भाई विभिष्ण ने भी रावण साथ छोड़ धर्म की लड़ाई में श्रीराम का साथ दिया। अपने अंहकार के कारण रावण को पराजय का मुंह देखना पड़ा।
इस मौंके पर जैन समाज के प्रवक्ता संजय जैन, निर्दोष जैन, राजकुमार जैन, सुशील जैन, विरेन्द्र जैन, नरेश चन्द जैन, विरेन्द्र जैन, अशोक जैन, अवनीश जैन, शेलैन्द्र जैन, पुष्प चन्द जैन, नवीन जैन, मुकेश जैन, पवन जैन, अमित जैन, श्रैयांश जैन, मनोज जैन आदि उपस्थित थे।