पटना। जैन परम्परा के 20 वीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती कठोर तपस्वी संत 108 श्री शांतिसागर जी महाराज का समाधि महोत्सव उनके 100 वीं दीक्षा शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में कांग्रेस मैदान स्थित श्री दिगम्बर जैन मंदिर में रविवार को धूमधाम के साथ मनाया गया। इस अवसर पर श्री 1008 पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में प्रातः जिनेन्द्र प्रभु का अभिषेक , शांतिधारा , पूजन-अर्चना किया गया।
तत्पश्चात वृद्ध तपस्वी जैन संत आचार्य विपुल सागर जी महाराज , आचार्य भद्रबाहु सागर जी महाराज व मुनि श्री भरतेश सागर जी महाराज के सानिध्य में प्रथमाचार्य शांतिसागर जी महाराज (दक्षिण) के समाधि दिवस पर जैन श्रद्धालुओं ने विशेष पूजन-अर्चना कर महाराज श्री को श्रद्धा सुमन समर्पित किया।
इसके उपरांत जैन श्रावकों ने गुरुभक्ति में खूब झूमें और श्रद्धा भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र प्रभु व चातुर्मास कर रहे गुरुदेव के श्री चरणों में अर्घ्य अर्पित किया। इस दौरान “हर कलश मंगल नही होता , हर सागर महासागर नही होता , साधु संत दुनिया में लाखों करोड़ों है , मगर हर संत चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर नही होते” जैसे श्लोकों पर गुरुदेव के जयकारो से मंदिर परिसर गुंजायमान हुआ। इससे पूर्व जैन समाज के लोगो ने आचार्य शांतिसागर जी महाराज का चित्र अनावरण , दीप प्रज्वलन , मंगल आरती किया।
चारित्र चक्रवर्ती शांतिसागर जी की रत्नत्रय साधना अत्यंत कठोर थी : आचार्य भद्रबाहु सागर जी
20 वीं सदी के प्रथम जैन आचार्य शांतिसागर जी महाराज के जीवन पर प्रकाश डालते हुए जैन संत आचार्य भद्रबाहु सागर जी महाराज ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी महाराज की रत्नत्रय साधना अत्यंत कठोर थी। वो शरीर को पराया समझ कर कभी-कभी आहार लेते थे। उपवास उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण चर्या थी। जैन संत ने कहा कि उन्होंने अपने साधु जीवन में अन्न त्याग कर कुल 9338 उपवास किये। वो कई उपसर्ग सहते हुए भी अपने कठोर तप-त्याग-साधना में लगे रहे। आचार्य शांतिसागर जी बचपन से ही बलशाली तथा दयालु थे।
इंदौर से पधारी ब्रह्मचारिणी समता दीदी ने बताया कि देश की संस्कृति में जैन संस्कृति का एक विशेष स्थान रहा है जो प्राण वायु की तरह अध्यात्म प्रधान संस्कृति रही है। इसमें जीवन का लक्ष्य भोग को नही योग को माना जाता है। जैन संस्कृति ने आध्यात्मिक जागरण और सामाज के चहुंमुखी विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
जैन समाज से प्रवीण जैन ने बताया कि आचार्य शांतिसागर जी महाराज का जन्म सन् 1872 में यालागुडा गांव कर्नाटक में हुआ था। जैन धर्म की रक्षा तथा धर्म को आगे बढ़ाने के साथ अपना आत्म कल्याण करने के लिए चारित्र चक्रवर्ती शांतिसागर जी महाराज ने कठिन परिस्थितियों में दिगम्बर मुनि बनने का निर्णय लिया और दिगम्बरत्व यानि दिगम्बर जैन संतो की परंपरा को पुनः लौटाया। 20 वीं सदी के प्रथमाचार्य शांतिसागर महाराज का 100 वां दीक्षा शताब्दी वर्ष देश भर में जैन अनुयायी हर्षोल्लास पूर्वक मना रहे है।
— प्रवीण जैन (पटना)