धर्म परिवार से नहीं बल्कि परमात्मा से चलता है, वह आत्मा का ही पर्याय है। इसलिए धर्म को कभी परिवार के बंधन में नहीं जकड़ा जा सकता। धर्म का प्रकाश सम्पूर्ण वि में समान रूप से फैलता है। उक्त उदगार मुनि पुंगव 108 श्री सुधा सागर जी महाराज ने शहर के नेमिनाथ कॉलोनी स्थित नेमिनाथ दिगंबर जैन मंदिर में सोमवार श्रावकों के समक्ष ब्यक्त किये। उन्होंने कहा गुरू की बात सुनना और मनन करना तत्पश्चात आत्मा की आवाज स्वीकारना भी धर्म कहलाता है। मनुष्य की कोई भी क्रिया अच्छी या बुरी नहीं होती, उस क्रिया के पीछे अभिप्राय और भावना क्या है, यह ध्यान देने की बात है। वि के किसी ग्रंथ में सैनिकों को पापी नहीं कहा गया जबकि सैनिक के मन में हमेशा दुश्मनों को मारने का भाव रहता है। आदिनाथ ने तलवार पर उपदेश दिया था और शस्त्रों को चलाना भी सिखाया किंतु इसके पीछे धर्म का भाव था न कि इसका उदेश्य हिंसा करना था। इसलिए सैनिक को भी हिंसक नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह देश की रक्षा के लिए अपना धर्म निभा रहा है। उन्होंने कहा धर्म का छठा भाग सैनिकों के खाते में जमा हो रहा है क्योंकि देश में हो रहे धार्मिक आयोजन उनकहीं की सुरक्षा के कारण सम्पन्न हो रहे हैं। उन्होंने कहा सैनिक की क्रिया किसी को मारने की होती है किंतु भाव अनुसार वह देवगति को प्राप्त करता है। इसके उल्टा मंदिर में बैठा धर्मात्मा की क्रिया में तो धर्म है किंतु भावों में क्रूरता है तो वह नरक का भागी बनता है। उन्होंने आगे कहा कि भगवान या गुरू ने भक्त में क्या देखा, वह भगवान ही जानता है किंतु गुरू ने जो उपदेश दिए उस पर श्रावक पुरुषार्थ करे और रत्नाचार पूर्वक चले यही महाव्रत है। उन्होंने कहा कि यदि आप अच्छे कार्य में लीन हो तो अच्छा और यदि बुरे कार्य में लीन हो तो बुरा ही होता है। प्रचार संयोजन शांतिकुमार कासलीवाल ने बताया कि श्री पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव समिति की ओर से मुनि का पाद पक्षालन महेंद्र टाया, पारस सिंघवी, डा. एस. के. लुहाड़िया, प्रमोद चौधरी, सुशील बैनाड़ा, राजेंद्र अखावत, विकास गंगवाल, माणकचंद लुहड़िया, रमेश बैद द्वारा किया गया।