भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुग में अनेक भाषाएं विकसित हुई, सामान्य भाषा में उसे प्राकृत भाषा के नाम से जाना जाता है। विकास की दृष्टि से भाषा के जानकारों ने भारत में आर्य भाषा को तीन स्तर विभाजित किया हैं, प्राचीन, मध्यकाली और अर्वाचीन। प्राचीन स्तर की भाषाएं वैदिक संस्कृत और संस्कृत हैं। उस युग की भाषा में जो ग्रंथ/साहित्य रचे गये, उन्हें प्राकृत ग्रंथ/साहित्य कहा जाता है। ज्यादातर प्राचीन जैन ग्रंथ/साहित्य प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। अर्थात हम कह सकते हैं कि जैन विद्वानों और रचनाकारों ने प्राकृत भाषा में जैन ग्रंथ लिखे हैं, जो अभी भी सुरक्षित और संग्रहीत हैं।
अत: हम कह सकते हैं कि उस युग में श्रमण महावीर और बुद्ध ने जो उपदेश दिये होंगे, वो भी प्राकृत भाषा के उत्कृष्ट रूप रहे होंगे। यही कारण रहा कि जैन विद्वानों/रचनाकारों ने प्राकृत भाषा का उपयोग प्राचीन जैन ग्रंथों आदि की रचना में किया। वर्तमान युग में हम लोग इतने आधुनिकता में खो गये हैं कि अपनी प्राचीन सांस्कृति धरोहर (प्राकृत भाषा) को भूलते जा रहे हैं और अपनी पहचान को स्थापित करने में असमर्थता महसूस करते हैं। जैन धर्म की प्राचीन धरोहर (प्राकृत भाषा) को हमारे जैन निग्रंथ दिगम्बर मुनि अपनी संयम, साधन, संयम से अपने समाज की प्राचीन धरोहर को अभी तक संजोये रखे हैं।
मुनिराज आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के परम पुनीत शिष्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज के दिशा-निर्देशन में अजेश जी, नेहा जी, संगीता जी, नीलम जी एवं कुछ सहयोगियों के प्रयत्न से केवल भारत में नहीं अपितु विश्व के अनेक देशों में प्राकृत भाषा का प्रचार-प्रसार एवं इस भाषा को जन-जन में पहुंचाने के लिए मुहिम चलायी जा रही है, जिससे आफ लाइन/आन लाइन भी प्राकृत भाषा के बारे में अध्ययन किया जा सकता है। प्राकृत भाषा के अध्ययन मात्र से हम अपनी जैन संस्कृति, ग्रंथों का बारीकी से ममन कर स्वयं ही नहीं बल्कि भविष्य की आगामी पीढ़ी का भी दिशा-निर्देशन कर समाज को अपनी प्राचीन धरोहर से जोड़े रख सकते हैं।
— निशेष जैन
डॉ अजेश जैन शास्त्री 09784601548
श्रीमती नेहा जैन प्राकृत 09817006981
श्रीमती संगीता जैन 07404925354
नीलम जैन