बेशक तमाम सफल लोगों को अपने जीवन में संघर्ष करना पड़े, यह जरूरी नहीं। कुछ के हिस्से में सुख-सुविधा भी आती है। फिर भी ये लोग जीवन का मोल समझते हैं। सामाजिक सरोकार को अपनाते हैं और आने वाली पीढ़ी को अपने अनुभव का निचोड़ देते चलते हैं। प्रदीप कासलीवाल ऐसी ही शख्सियत थीं, जो इंदौर शहर के प्रतिष्ठित खानदान से तो ताल्लुक रखते थे, लेकिन खुद की लकीर खींचते हुए वे आगे बढ़े और समाज सेवा के ढेर सारे प्रकल्पों से भी उनका वास्ता रहा । वे 5 सितंबर को जिंदगी की जंग हार गये। वह 3 अगस्त को कोरोना पजेटिव होने के बाद अस्पताल में भर्ती हुए थे । हालांकि उनकी रिपोर्ट दस दिन पहले कोरोना नेगेटिव आ गई थी ।
कारोबार और समाजसेवा में समान दखल रखते थे प्रदीप कासलीवाल
आजादी के ठीक बाद जो पीढ़ी समय के साथ आगे बढ़ी उसमें प्रदीप कासलीवाल भी थे। सन् 1948 में जन्म के साथ ही उन्होंने भी स्वतंत्र भारत की विकास यात्रा को देखा-समझा और जो बन पड़ा, वो योगदान दिया। वे इंदौर के गोविंदराम सेकसरिया विज्ञान एवं अभियांत्रिकी महाविद्यालय (एसजीएसटीआईएस) से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक थे। पिता देवकुमारसिंह कासलीवाल, सर सेठ हुकमचंद के खानदानी वटवृक्ष से निकली एक शाखा हैं। ऐसे समर्थ, सक्षम और सामाजिक सरोकारों वाले परिवार के सदस्य प्रदीप कासलीवाल में भी समाज सेवा का अंकुरण वंशानुगत तो था ही, उन्होंने खुद अपने अथक् प्रयासों से इसे सींचा ।
उच्च शिक्षा के बाद प्रदीपजी ने कोई नौकरी तो करना नहीं थी। पहले उन्होंने अपने पारिवारिक कामकाज को समझा। फिर सोचा, इसे बरकरार रखते हुए कैसे वक्त के तकाजे के मुताबिक नई धारा में बहा जाए। इस बीच, सन् 1984 में देश में वैश्वीकरण की शुरुआत से पहले ही हिम्मत करते हुए आदिवासी बहुल धार जिले के अमझेरा के पास धार सीमेंट के नाम से कारखाने की स्थापना की। चूंकि इस जिले में बाग, गंधवानी के आसपास चूने की खदानें बहुतायत से हैं तो सीमेंट के लिए कच्चा माल प्रचुरता के साथ मिलने की संभावना थी। एक समय ऐसा आया जब समूचे देश में धार सीमेंट की पहचान बन गई। बाद में बदले वैश्विक हालात, प्रदेश और देश की सरकारों की अनुदार नीतियों, राजनीतिक और प्रशासनिक गतिरोधों के चलते इसे बंद करना पड़ा। प्रदीपजी ने हिम्मत नहीं हारी और फिर से नई शुरुआत को लेकर सक्रिय हो गए। इस बीच, पारिवारिक कारोबार टॉकीज का काम भी बराबरी से देखते ही रहे। इंदौर में जो सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर बचे हैं, उनमें सबसे ज्यादा इन्हीं के हैं- स्मृति, कुसुम, कस्तूर, अनोप और आस्था टॉकीज। राजश्री प्रॉडक्शन की तमाम फिल्में वे ही प्रदर्शित करते हैं। साथ ही कृषि फॉम्र्स और नर्सरी के काम में भी उनका दखल बना हुआ है।
उधर, देवकुमारसिंह कासलीवाल की तीसरी पीढ़ी, प्रदीपजी के बेटे आदित्य और अमित उच्च शिक्षा के बाद अपने सफर की शुरुआत करने की तैयारी मेें थे। उस वक्त प्रदीपजी ने एम.जी. रोड स्थित अपने निवास परिसर में होंडा स्कूटर और फिर लसुडिय़ा देवास नाका क्षेत्र में पहले हुंडई व फिर भारत बेंझ कार का शो-रूम स्थापित किया। इस तरह कासलीवाल परिवार ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में भी आ गए। दोनों बेटे जब अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाने लगे, प्रदीपजी ने खुद को पूरी तरह समाज सेवा के लिए समर्पित कर दिया। वैसे इसकी शुरुआत सन् 1992 से हो गई थी, जब वे बावनगजा महामस्तकाभिषेक महोत्सव में स्वयंसेवक मंडल का नेतृत्व करने उतरे। तब से अभी तक वे करीब दो दर्जन संस्थाओं से जुड़े रहे, जिसमें समाज की सर्वोच्च संस्था श्री दिगंबर जैन महासमिति भी है, जिसके वे राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं। इंदौर के महावीर ट्रस्ट के साथ ही वे मक्सी, बडऩगर, उज्जैन, सिद्धवरकूट, बद्रीनाथ, मथुरा, श्रवणबेलगोला, श्रीगिरनार जूनागढ़, दिल्ली आदि अनेक स्थानों की समाज की विभिन्न समितियों के पदाधिकारी रहे हैं। इसी के साथ वे आदिनाथ भगवान महावीर 2600वीं जन्म जयंती राष्ट्रीय समिति के सदस्य और तीर्थक्षेत्र का भी प्रतिनिधित्व कर चुके थे।
प्रदीपजी ने मालवा प्रांतिक सभा उज्जैन में प्राचीन जैन मूर्तियों का संग्रहालय बनाने के काफी जतन किए। अष्टापद बद्रीनाथ में आदिनाथ आध्यात्मिक अहिंसा फाउंडेशन की स्थापना भी उनके प्रयासों से हुई है। इसके अलावा मक्सी में दिगंबर व श्वेतांबर जैन के बीच करीब सवा सौ साल से चल रहे विवाद को समाप्त कराने में उनकी महती भूमिका रही। इंदौर के जिस कांच मंदिर की विश्वस्तरीय ख्याति है वह भी उनके पुरखों द्वारा बनाया हुआ है।
72 वर्ष की उम्र में वे बेहद योजनाबद्ध तरीके से कारोबार, परिवार और समाजसेवा के बीच तालमेल बनाकर चल रहे थे। इन दिनों वे समान रूप से अपनी तीसरी पीढ़ी के साथ वक्त बिताते हुए उनके भविष्य की रूपरेखा बना रहे थे, ताकि इंदौर में सौ वर्ष से अधिक समय से ओंकारजी कस्तूरचंद व देवकुमारसिंह कासलीवाल परिवार की जो परंपरा, प्रतिष्ठा और पहचान कायम है, उसे यश, कीर्ति से परिपूर्ण रख सकें।
— संजीव जैन संजीवनी