संसार में मां-बाप से बढ़कर कोई देवी-देवता नहीं हैं। इसलिए सर्वप्रथम हमारा कर्तव्य है कि अपने माता-पिता को कभी दुख न दें। हमें अपने बड़ों से कभी भी कुछ नहीं मांगना चाहिए और न ही उनके सामने अपना दुख व्यक्त करना चाहिए फिर चाहे आप कितने भी दुखी या परेशान क्यों न हो? ये बात मुनि पुगंव श्रीसुधा सागर जी ने देवली स्थित श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर अतिशय क्षेत्र सुदर्शनोदय तीर्थ आवां में कर रहे चातुर्मास के दौरान एक विशाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कही। मुनिश्री ने कहा कि जो व्यक्ति अपने मां-बाप की सेवा नहीं करते हैं, वे इस जन्म में कभी सुखी नहीं हो सकते।
व्यक्ति को मां-बाप के दोष न देखें बल्कि उनके गुणों को अंगीकार करें क्योंकि ऐसा करने से आप सुखी रहेंगे और घर में बरकत आयेगी। मुनिश्री ने कहा कि परिवार में बीमारी नहीं चाहते तो किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश स्वयं करो कि जो पैसों के अभाव में दवाई न खरीद पा रहा हो। आप डाक्टर के यहां जाकर कह दो कि ऐसा कोई एक व्यक्ति जो पैसों के कारण कारण दवाई न ले पा रहा हो तो उसको दवाई मेरी तरफ से दे देना। तात्पर्य कि वह स्वयं तुम्हारे यहां न आये बल्कि तुम्हें उसके पास जाकर ऐसा करना चाहिए। गरीब व्यक्ति तुम्हारे पास न आये बल्कि तुम उसके यहां जाओ। उन्होंने आगे कहा कि मां-बाप की सेवा करना ही परम धर्म है और हम जितना धर्म का पालन करेंगे उसने सुखी और संतोषी होते जाएंगे।
ऐसे लोगों के पास दुख आ ही नही सकता। हिंदू धर्म के ग्रंथों में भी मानव हित के लिए कई बातें बताई गई हैं। इनमें गरुड़ पुराण में बताया है कि पूरे संसार में माता-पिता के समान श्रेष्ठ कोई दूसरा नहीं है। अत: अपने माता-पिता की पूजा करनी चाहिए। श्रीरामचंद्र जी की बात करते हुए कहा कि 14 वर्षो के बनवास के बाद भी जाते समय उन्होंने कैकेयी के पैर छुए जबकि कई लोगों ने कहा कि इसी की वजह से तुम्हें 14 वर्ष का बनवास हुआ है। श्री रामचंद्र जी कहते हैं कि मुझे बनवास मेरे कर्मो की वजह से हुआ है। माता कैकेयी तो मात्र निमत्त हैं।