इस लेख लिखने का मूल उद्देश्य यह हैं की आज की युवा पीढ़ी के पास समय की कमी के कारण और जिन दर्शन की मूल या बुनियादी शब्द कोष के अभाव में शास्त्रों या लेखों को पढ़ते समय ना जानने के कारण उनमे रूचि ख़तम हो जाती हैं या पढ़ना छोड़ देते हैं .इसके लिए मंदिरों में या जहाँ स्थान मिले जरूर पाठशाला लगाना चाहिए जिससे उन्हें बुनियादी शिक्षा के साथ जैन दर्शन के शब्दकोष से भलीभांति परिचित हो, वे जिससे उन्हें जैन दर्शन के प्रति रुझान बढे .
जैन धर्म भारत का एक प्राचीन धर्म है। ‘जैन धर्म’ का अर्थ है – ‘जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म’। ‘जैन’ कहते हैं उन्हें, जो ‘जिन’ के अनुयायी हों। ‘जिन’ शब्द बना है ‘जि’ धातु से। ‘जि’ माने-जीतना। ‘जिन’ माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं ‘जिन’। जैन धर्म अर्थात ‘जिन’ भगवान् का धर्म। जैन धर्म में अहिंसा को परम धर्म माना जाता है और कोई सृष्टिकर्ता इश्वर नहीं माना जाता।
जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की प्राचीनता प्रामाणिक करने वाले अनेक उल्लेख अजैन साहित्य और खासकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं।
व्रत
जैन धर्म में श्रावक और मुनि दोनों के लिए पाँच व्रत बताए गए है। तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है, वह महाव्रत कहलाते है –
1. अहिंसा – किसी भी जीव को मन, वचन, काय से पीड़ा नहीं पहुँचाना।
2. सत्य – हित, मित, प्रिय वचन बोलना।
3. अस्तेय – बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना।
4. ब्रह्मचर्य – मन, वचन, काय से मैथुन कर्म का त्याग करना।
5. अपरिग्रह- पदार्थों के प्रति ममत्वरूप परिणमन का बुद्धिपूर्वक त्याग।
मुनि इन व्रतों का सूक्ष्म रूप से पालन करते है, वही श्रावक स्थायी रूप से करते है।
जैन ईश्वर को मानते हैं। लेकिन ईश्वर को सत्ता सम्पन्न नही मानते ईश्वर सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नही। जैन लोग सृष्टिकर्ता ईश्वर को नहीं मानते, जिन या अरिहन्त को ही ईश्वर मानते हैं। उन्हीं की प्रार्थना करते हैं और उन्हीं के निमित्त मंदिर आदि बनवाते हैं।
जैन धर्म मे 24 तीर्थंकरों को माना जाता है।
तीर्थंकर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते है। इस काल के २४ तीर्थंकर है-
क्रमांक तीर्थंकर
1 ऋषभदेव- इन्हें ‘आदिनाथ’ भी कहा जाताहै
2 अजितनाथ
3 सम्भवनाथ
4 अभिनंदन जी
5 सुमतिनाथ जी
6 पद्ममप्रभु जी
7 सुपार्श्वनाथ जी
8 चंदाप्रभु जी
9 सुविधिनाथ- इन्हें ‘पुष्पदन्त’ भी कहा जाता है
10 शीतलनाथ जी
11 श्रेयांसनाथ
12 वासुपूज्य जी
13 विमलनाथ जी
14 अनंतनाथ जी
15 धर्मनाथ जी
16 शांतिनाथ
17 कुंथुनाथ
18 अरनाथ जी
19 मल्लिनाथ जी
20 मुनिसुव्रत जी
21 नमिनाथ जी
22 अरिष्टनेमि जी – इन्हें ‘नेमिनाथ’ भीकहा जाता है। जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे।
23 पार्श्वनाथ
24 वर्धमान महावीर – इन्हें वर्धमान, सन्मति,वीर, अतिवीर भी कहा जाता है।
अर्हंतं , जिन, ऋषभदेव, अरिष्टनेमि आदि तीर्थंकरों का उल्लेख ऋग्वेदादि में बहुलता से मिलता है, जिससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि वेदों की रचना के पहले जैन-धर्म का अस्तित्व भारत में था। श्रीमद् भागवत में श्री ऋषभदेव को विष्णु का आठवाँ अवतार और परमहंस दिगंबर धर्म का प्रतिपादक कहा है। विष्णु पुराण में श्री ऋषभदेव, मनुस्मृति में प्रथम जिन (यानी ऋषभदेव) स्कंदपुराण , लिंगपुराण आदि में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है। दीक्षा मूर्ति-सहस्रनाम, वैशम्पायन सहस्रनाम महिम्न स्तोत्र में भगवान जिनेश्वर व अरहंत कह के स्तुति की गई है।
योग वाशिष्ठ में श्रीराम ‘जिन’ भगवान की तरह शांति की कामना करते हैं।
इसी तरहरुद्रयामलतंत्र में भवानी को जिनेश्वरी, जिनमाता, जिनेन्द्रा कहकर संबोधन किया है।
नगर पुराण में कलयुग में एक जैन मुनि को भोजन कराने का फल कृतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर कहा गया है। अंतिम दो तीर्थंकर, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी ऐतिहासिक पुरुष है महावीर का जन्म ईसा से ५९९ वर्ष पहले होना ग्रंथों से पाया जाया है।
शेष के विषय में अनेक प्रकार की अलौकीक और प्रकृतिविरुद्ध कथाएँ हैं। ऋषभदेव की कथा भागवत आदि कई पुराणों में आई है और उनकी गणना हिंदुओं के २४ अवतारों में है। भगवान महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इंद्रभूति गौतम थे जिन्हें कुछ युरोपियन विद्वानों ने भ्रमवश शाक्य मुनी गोतम समझा था।
जैन धर्म में दो संप्रदाय है —
श्वेतांबर और दिगंबर। इनमें तत्व या सिद्धांतों में कोई भेद नहीं है।
अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि बताया है। जगत् का न तो कोई हर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है। अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं। जीव या आत्मा का मूल स्वभान शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंदमय है, केवल पुदगल या कर्म के आवरण से उसका मूल स्वरुप आच्छादित हो जाता है। जिस समय यह पौद्गलिक भार हट जाता है उस समय आत्मा परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त होता है। जैन मत ‘स्याद्वाद’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्याद्वाद का अर्थ है अनेकांतवाद अर्थात् एक ही पदार्थ में नित्यत्वऔर अनित्यत्व, सादृश्य और विरुपत्व, सत्व और असत्व, अभिलाष्यत्व और अनभिलाष्यत्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष स्वीकार। इस मत के अनुसार आकाश से लेकर दीपक पर्यंत समस्त पदार्थ नित्यत्व और अनित्यत्व आदि उभय धर्म युक्त है।
सात तत्त्व
जैन ग्रंथों में सात तत्त्वों का वर्णन मिलता हैं।
- जीव- जैन दर्शन में आत्मा के लिए “जीव” शब्द का प्रयोग किया गया हैं। आत्मा द्रव्य जो चैतन्यस्वरुप है।
- अजीव- जड़ या की अचेतन द्रव्य को अजीव (पुद्गल) कहा जाता है।
- आस्रव – पुद्गल कर्मों का आस्रव करना
- बन्ध- आत्मा से कर्म बन्धना
- संवर- कर्म बन्ध को रोकना
- निर्जरा- कर्मों को शय करना
- मोक्ष – जीवन व मरण के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहते हैं।
नौ पदार्थ
जैन ग्रंथों के अनुसार जीव और अजीव, यह दो मुख्य पदार्थ हैं।
आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप अजीव द्रव्य के भेद हैं।
छह द्रव्य
मुख्य लेख : द्रव्य (जैन दर्शन)
छः शाश्वत द्रव्य
जैन धर्म के अनुसार लोक ६ द्रव्यों (सब्स्टेंस) से बना है। यह ६ द्रव्य शाश्वत हैं अर्थात इनकोबनाया या मिटाया नहीं जा सकता। यह है
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म , आकाश और काल।
रत्नत्रय
सम्यक् दर्शन
सम्यक् ज्ञान
सम्यक् चारित्र
यह रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नहीं रहता।
चार कषाय
क्रोध, मान, माया, लोभ।
चार गति
देव गति, मनुष्य गति, तिर्यञ्च गति, नर्क गति,
(पञ्चम गति = मोक्ष)।
चार निक्षेप
नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप, भाव निक्षेप।
सम्यक्त्व के आठ अंग
निःशंकितत्त्व, निःकांक्षितत्त्व,
निर्विचिकित्सत्त्व, अमूढदृष्टित्व, उपबृंहन /
उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य
अहिंसा
अहिंसा और जीव दया पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। सभी जैन शाकाहारी होते हैं।
अनेकान्तवाद
मुख्य लेख : अनेकान्तवाद
अनेकान्तवाद का अर्थ है- एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक धर्म युगलों का स्वीकार।
स्यादवाद
स्यादवाद का अर्थ है- विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन।
मन्त्र
जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-
णमो अरिहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्वसाहूणं॥
अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।
काल चक्र
जैन कालचक्र दो भाग में विभाजित है : उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी
जिस प्रकार काल हिंदुओं में मन्वंतर कल्प आदि में विभक्त है उसी प्रकार जैन में काल दो प्रकार का है— उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी।
प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में चौबीस चौबीस जिन तीर्थंकर होते हैं। ऊपर जो २४ तीर्थंकर गिनाए गए हैं वे वर्तमान अवसर्पिणी के हैं। जो एक बार तीर्थकर हो जाते हैं वे फिर दूसरी उत्सिर्पिणी या अवसर्पिणी में जन्म नहीं लेते। प्रत्येक उत्सिर्पिणी या अवसर्पिणी में नए नए जीव तीर्थंकर हुआ करते हैं। इन्हीं तीर्थंकरों के उपदेशों को लेकर गणधर लोग द्वादश अंगो की रचना करते हैं। ये ही द्वादशांग जैन धर्म के मूल ग्रंथ माने जाते है।
इनके नाम ये हैं—
आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती सूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, उपासक दशांग, अंतकृत् दशांग, अनुत्तोरोपपातिक दशांग, प्रश्न व्याकरण, विपाकश्रुत, हृष्टिवाद। इनमें से ग्यारह अंश तो मिलते हैं पर बारहवाँ हृष्टिवाद नहीं मिलता। ये सब अंग अर्धमागधी प्राकृत में है और अधिक से अधिक बीस बाईस सौ वर्ष पुराने हैं। इन आगमों या अंगों को श्वेताबंर जैन मानते हैं। पर दिगंबर पूरा पूरा नहीं मानते। उनके ग्रंथ संस्कृत में अलग है जिनमें इन तीर्थंकरों की कथाएँ है और २४ पुराण के नाम से प्रसिद्ध हैं।
जैन धर्म कितना प्राचीन है, ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता। जैन ग्रंथो के अनुसार जैन धर्म अनादिकाल से है। महावीर स्वामी या वर्धमान ने ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। इसी समय से पीछे कुछ लोग विशेषकर यूरोपियन विद्वान् जैन धर्म का प्रचलित होना मानते हैं। जैनों ने अपने ग्रंथों को आगम , पुराण आदि में विभक्त किया है।
प्रो॰ जेकोबी आदि के आधुनिक अन्वेषणों के अनुसार यह सिद्ध किया गया है की जैन धर्म बौद्ध धर्म से पहले का है। उदयगिरि , जूनागढ आदि के शिलालेखों से भी जैनमत की प्राचीनता पाई जाती है। हिन्दू ग्रन्थ, स्कन्द पुराण (अध्याय ३७) के अनुसार:
“ऋषभदेव नाभिराज के पुत्र थे, ऋषभ के पुत्र भरत थे, और इनके ही नाम पर इस देश का नाम
“भारतवर्ष” पड़ा”|
भारतीय ज्योतिष में यूनानियों की शैली का प्रचार विक्रमीय संवत् से तीन सौ वर्ष पीछे हुआ।
पर जैनों के मूल ग्रंथ अंगों में यवन ज्योतिष का कुछ भी आभास नहीं है। जिस प्रकार ब्रह्मणों की वेद संहिता में पंचवर्षात्मक युग है और कृत्तिका से नक्षत्रों की गणना है उसी प्रकार जैनों के अंग ग्रंथों में भी है। इससे उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है।
भगवान महावीर के बाद
भगवान महावीर के पश्चात इस परंम्परा में कई मुनि एवं आचार्य भी हुये है, जिनमें से प्रमुख हैं-
भगवान महावीर के पश्चात ६२ बर्ष में तीन केवली (५२७ -४६५ बी सी .)
- आचार्य गौतम गणधर (६०७ -५१५ बी .सी .)
- आचार्य सुधर्मास्वामी (६०७ -५०७ बी .सी .)
- आचार्य जम्बूस्वामी (५४२ -४६५ बी .सी .)
इसके पश्चात 100 बर्षो में पॉच श्रुत केवली
(४६५ -३६५ बी .सी .)
आचार्य भद्रबाहु- अंतिम श्रुत केवली
(४३३ -३५७ )
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी (२०० ए .डी .)
आचार्य उमास्वामी (२०० ए .डी .)
आचार्य समन्तभद्र
आचार्य पूज्यपाद (४७४ -५२५ )
आचार्य वीरसेन (७९० -८२५ )
आचार्य जिनसेन (८०० -८८० )
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती
सम्प्रदाय
तीर्थंकर महावीर के समय तक अविछिन्न रही जैनपरंपरा ईसा की तीसरी सदी में दो भागों मेंविभक्त हो गयी : दिगंबर और श्वेताम्बर। मुनिप्रमाणसागर जी ने जैनों के इस विभाजन परअपनी रचना ‘जैनधर्म और दर्शन’ में विस्तार सेलिखा है कि आचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञान केबल पर जान लिया था कि उत्तर भारत में १२ वर्षका भयंकर अकाल पड़ने वाला है इसलिए उन्होंनेसभी साधुओं को निर्देश दिया कि इस भयानक अकाल से बचने के लिए दक्षिण भारत की ओर विहार करना चाहिए। आचार्य भद्रबाहु के साथ हजारों जैन मुनि (निर्ग्रन्थ) दक्षिण की ओर वर्तमान के तमिलनाडु और कर्नाटक की ओरप्रस्थान कर गए और अपनी साधना में लगे रहे।परन्तु कुछ जैन साधु उत्तर भारत में ही रुक गए थे।
अकाल के कारण यहाँ रुके हुए साधुओं का निर्वाह आगमानुरूप नहीं हो पा रहा था इसलिए उन्होंने अपनी कई क्रियाएँ शिथिल कर लीं, जैसे कटि वस्त्र धारण करना, ७ घरों से भिक्षा ग्रहण करना, १४ उपकरण साथ में रखना आदि। १२ वर्ष बाद दक्षिण से लौट कर आये साधुओं ने ये सब देखा तो उन्होंने यहाँ रह रहे साधुओं को समझाया कि आप लोग पुनः तीर्थंकर महावीर की परम्परा को अपना लें पर साधु राजी नहीं हुए और तब जैन धर्म में दिगंबर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदाय बन गए।
दिगम्बर
दिगम्बर साधु (निर्ग्रन्थ) वस्त्र नहीं पहनते है। नग्न रहते हैं। दिगम्बर मत में तीर्थकरों की प्रतिमाएँ पूर्ण नग्न बनायी जाती हैं और उनका शृंगार नहीं किया जाता है, पूजन पद्धति में फल और फूल नहीं चढाए जाते हैं।
श्वेताम्बर संन्यासी श्वेत वस्त्र पहनते हैं, तीर्थकरोंकी प्रतिमाएँ लंगोट और धातु की आंख, कुंडलसहित बनायी जाती हैं और उनका शृंगार कियाजाता है।
श्वेताम्बर भी दो भाग मे विभक्त है:
- मूर्तिपूजक -यॆ तीर्थकरों की प्रतिमाएँ की पुजा करतॆ हे.
- स्थानकवासी -ये मूर्ति पूजा नहीँ करते बल्किसाधु संतों को ही पूजते है।
स्थानकवासी के भी फ़िर से दो भाग है:-
- बाईस पंथी
- तेरा पंथी
धर्मग्रंथ
समस्त जैन आगम ग्रंथो को चार भागो मैं बांटागया है
(१) प्रथमानुयोग्
(२) करनानुयोग
(३) चरणानुयोग
(४) द्रव्यानुयोग
तत्त्वार्थ सूत्र- सभी जैनों द्वारा स्वीकृत ग्रन्थ
दिगम्बर ग्रन्थ
प्रमुख जैन ग्रन्थ हैं :-
षट्खण्डागम- मूल आगम ग्रन्थ
आचार्य कुंद कुंद द्वारा विरचित ग्रन्थ-
समयसार , प्रवचनसार
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
आदिपुराण
इष्टोपदेश,
आप्तमीमांसा,
मूलाचार,
द्रव्यसंग्रह,
गोम्मटसार,
श्वेताम्बर ग्रन्थ
कल्पसूत्र
त्यौहार
जैन धर्म के प्रमुख त्यौहार इस प्रकार हैं।
पंचकल्याणक
महावीर जयंती
पर्युषण
ऋषिपंचमी
जैन धर्म में दीपावली
ज्ञान पंचमी
दशलक्षण धर्म
सन्दर्भ
- शास्त्री २००७ , प॰ ८७.
- प्रमाणसागर २००८ , प॰ १८९.
- जैन २०११ , प॰ ९३.
- ज़िम्मर १९५३ , प॰ १८२ -१८३ .
- शास्त्री २००७ , प॰ ६४.
- अ आ इ आचार्य नेमिचन्द्र २०१३ .
- अ आ प्रमाणसागर २००८ .
- सांगावे २००१ , प॰ २३
जैन दर्शन का अगाथ भण्डार हैं और अब नित नए ढंग से नयी नयी शोध हो रहे हैं जिससे जैन सिद्धांत की पुष्टि होती हैं .
— डॉक्टर अरविन्द जैन (Jain24.com)