आज उत्तम त्याग धर्म का दिन है। त्याग यानि व्युत्सर्ग।
“प्रवचनसार जी” की “तात्पर्यवृत्ति टीका” में त्याग का स्वरूप बताते हुये आचार्य कहते हैं —
“निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य और आभ्यांतर परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं।”
“बारस अणुवेक्खा” के अनुसार —
“जो जीव सारे परद्रव्यों का मोह छोड़कर संसार देह और भोगों से उदासीन रूप परिणाम रखता है , उसके त्याग धर्म होता है।” निश्चय से आत्मस्वरूप का ग्रहण करते हुये मोह-राग-द्वेष भावों का त्याग करना ही उत्तम त्याग धर्म है। और निश्चय त्याग के साथ बहिरंग में दया – दानादि के भावों में प्रवर्तन करना व्यवहार से उत्तम त्याग धर्म है।
प्रश्न उठता है कि उत्तम त्याग के दिन दान की चर्चा क्यों ?
वीतराग श्रेयस मार्ग में त्याग का महत्त्व सर्वोपरि है। इसीलिये इसका निर्देश गृहस्थों के लिये दान के रूप में तथा साधुओं के लिये परिग्रहत्याग व्रत व त्यागधर्म के रूप में किया गया है। आगम में तो यहाँ तक कहा गया है कि अपनी शक्ति को न छिपाकर इस धर्म की भावना करने वाला तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है।
इसीलिये आगम में गृहस्थ धर्म में दान की प्रधानता मानी गई है। दान को दो भागों में विभाजित किया गया है — अलौकिक और लौकिक।
अलौकिक दान चार प्रकार का होता है — आहार दान , औषधि दान , ज्ञान दान , अभय दान।
अलौकिक दान में से आहारदान और औषधिदान हम साधुओं को देते हैं। और ज्ञानदान और अभयदान साधु हम श्रावकों को देते हैं। तथा लौकिक दान साधारण व्यक्तियों को दिया जाता है। जैसे करूणा दान , औषधालय , स्कूल , प्याऊ आदि खुलवाना , अनाथालयों में दान देना आदि।
निरपेक्ष वृत्ति से सम्यकत्व पूर्वक सदपात्र को दिया गया अलौकिक दान दातार को परम्परा से मोक्ष प्रदान करता है। पात्र , कुपात्र , व अपात्र को दिये गये दान में भावों की मुख्यता है , जैसे परिणामों से दान दिया उसके अनुसार ही फल मिलता है।
सामान्य रूप से दान का लक्षण —
स्वपरोपकारोSनुग्रहः
अर्थात् स्वयं अपने और दूसरे के उपकार के लिये अपनी वस्तु का त्याग करना दान है।
(सर्वार्थसिद्ध 7/38)
दान के भेदों का स्पष्टीकरण–
मुख्य रूप से दान के चार भेद माने गये हैं — आहार दान, औषधि दान, ज्ञान दान, अभय दान।
1- आहार दान–
भावलिंगी दिगम्बर मुनिराजों को नवधा भक्ति पूर्वक , 46 दोषों से रहित शुद्ध आहार देना अाहार दान है। ये चारों दानों में सर्वश्रेष्ठ दान है।
2- औषधि दान —
रोग का नाश करने वाली प्रासुक औषधि मुनिराज को देना औषधि दान है।
3- ज्ञान दान —
जिनवचनों को पढना – पढाना , योग्य पात्र को जिनवाणी भेंट करना ज्ञान दान है।
4 – अभय दान —
मरण से भयभीत जीवों का रक्षण करना , धर्मी और धर्मायतनों की रक्षा करना अभय दान है।
इन चारों दानों में ज्ञानदान को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। क्यों कि आत्मज्ञान ही संसार समुद्र से पार कराने वाला है। इसीलिये तो कहते हैं —
आत्मज्ञान ही ज्ञान है शेष सभी अज्ञान।
“सागार धर्मामृत” में दान के तीन भेद किये गये हैं–
सात्विक दान , राजस दान और तामस दान। (5/47)
1- सात्विक दान–
जिस दान में अतिथि का कल्याण हो , जिसमें पात्र का परीक्षा और निरीक्षण स्वयं किया गया हो , और जिसमें श्रद्धादि गुण हों , उसे सात्विक दान कहते हैं।
2- राजस दान —
जो दान केवल अपने यश के लिये किया गया हो , जो थोड़े समय के लिये सुंदर और चकित करने वाला हो , और दूसरे से दिलाया गया हो उसे राजस दान कहते हैं।
3- तामस दान —
जिसमें पात्र , अपात्र का कुछ ख्याल न किया गया हो , अतिथि का सत्कार न किया गया हो , निंद्य हो और जो सेवकों और दासों से कराया गया हो उसे तामस दान कहते हैं।
दान का उपदेश क्यों —
सुपात्र को चारों प्रकार का दान देना और देव-शास्त्र- गुरू की पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म है। ये दोनों कार्य जो प्रतिदिन अपना कर्तव्य मानकर पालन करता है वही सच्चा श्रावक है। जो व्यक्ति लक्ष्मी का संचय करके पृथ्वी में गाढ देता है, या आज के हिसाब से तिजोरी में बंद कर देता है , वह मनुष्य उस लक्ष्मी को पत्थर के समान कर देता है। जैसे कुँये का पानी यदि कुँये से निकलता रहे तो निर्मल भी रहता है और बढता भी रहता है , लेकिन यदि पानी कुँये से निकाला न जाये तो सड़ जाता है , ठीक उसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी लक्ष्मी को धर्म की प्रभावना और दूसरों की सहायता में खर्च करता है, वास्तव में वही धन सफल भी है और निरन्तर वृद्धि को भी प्राप्त होता है , वर्ना कुँये के सड़े हुये पानी की तरह बेकार है।
सागार धर्मामृत में आचार्य कहते हैं कि “गृहस्थ अपने कमाये हुये धन के चार भाग करे , उसमें से एक भाग को जमा रखे , दूसरे भाग से जरूरत का सामान खरीदे , तीसरे भाग से धर्मकार्य और अपने भोग-उपभोग में खर्च करे , और चौथे भाग से अपने कुटुम्ब का पालन करे ….. ”
(1/11/22)
भाई ! ये धन , जीवन , यौवन क्षणभंगुर है , मरण अचानक आयेगा , तेरे दान , तप , शील आदि भावों से कमाया हुआ पुण्य ही परलोक में तेरे साथ जाने वाला है। आज जो तुझे भोग- सामग्री मिली है , वो पूर्व जन्म में जैसा दान दिया था उसके फल में ही मिली है। संसार के अन्य कार्यों में , विषय-भोगों में , कुटुम्ब के विषय- कषाय साधने में जो धन खर्च होगा वह केवल बंध करने वाला संसार समुद्र में डुबोने वाला है।
भोजन करना तभी सफल है जो दानपूर्वक किया जाये , क्यों कि अपना पेट तो पशु भी भर लेता है। जैसे समुद्र में रत्न भी बहुत है और जल भी। जल खारा है और मगरमच्छों से भरा होने के कारण रत्न निकाल नहीं सकते , सो रत्न और जल दोनों ही उपकार न कर सकने के कारण निष्फल है , ठीक उसी प्रकार कंजूस का संचित धन दूसरों के उपकार से रहित होने के कारण निष्फल है।
धन पाकर भी यदि धर्मकार्यों में उसका सदुपयोग नहीं किया तो हम उस धन के स्वामी नहीं चौकीदार हैं। जिसका दुष्फल हम वर्तमान में प्रत्यक्ष देखते हैं। बहुत से लोग अन्न-अन्न करते मर जाते हैं , दरिद्री होकर घर-घर माँगते फिरते हैं , दीनता दिखाते हैं , फिर भी उनकी ओर कोई देखता तक नहीं बल्कि सब दुत्कारते हैं — ये सब पूर्व जन्मों में धन से तीव्र ममता बाँधकर , कृपण होकर धन संचय करने और दान न देने का ही फल है।
कहने का अभिप्राय यही है कि जो सुपात्र को यथायोग्य आहार, औषधि , शास्त्र, वस्तिका , स्थान , वस्त्र, जीविका के साधन, दीन दुखियों की सहायता , धर्म प्रभावना के कार्य विनय पूर्वक करता है , वह निश्तित ही सदगति का पात्र बनता है , और आगामी भवों में परम्परा से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। कविवर द्यानतराय जी तो यहाँ तक कहते हैं कि बिना दान के श्रावक और साधु दोनों ही बोधि यानि रत्नत्रय को प्राप्त नहीं करते।
बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहै नाहीं बोधि को।।
हम सब भी अपनी-अपनी शक्ति अनुसार दया दानादि के भावों में प्रवृत्ति करते हुये उत्तम त्याग धर्म को धारण करे और मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हों ऐसी मंगल भावना है।
— नीरज जैन दिलशाद ग्राडंन दिल्ली