साधक ने उत्तम क्षमा भाव के साथ अपनी मान ,माया लोभ कषाय को जीता ,उसके बाद सत्य ,संयम ,तप को अपना कर त्याग ,आकिंचन्य भाव से समस्त परिग्रहों को त्याग कर अब उसके पास अपनी आत्मा में चर्या करके अपना उद्धार करना हैं जो उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य होता हैं। अपनी आत्मा में रमण करना ही ब्रह्मचर्य धर्म हैं।
स्त्रीसंसक्तशय्यादेरनुभूतागणस्मृतः ।
तत्काथायाः श्रुतश्च स्याद ब्रह्मचर्य हि वर्जना।।
स्त्रियों से संसक्त ,शय्यादि का त्याग करना ,पहले भोगी हुई स्त्रियों के स्मरण का त्याग करना और स्त्रियों की राग -वर्धक कथाओं के सुनने का त्याग करना ब्रह्मचर्य धर्म हैं।
जिस (ब्रह्मचर्य ) महाव्रत के माहात्म्य से असंयमी जन में भी महाविद्यायें सेवा तत्पर रहती हुई अच्छी तरह निवास करती हैं ,वह ब्रह्मचर्य व्रत नाम से देवव्रत माना गया हैं।
अस्वतन्त्रता के लिए गुरु ब्रह्म में आचरण करना ब्रह्मचर्य हैं ,ब्रह्म (गुरु) उसके अधीन अपनी प्रवत्ति रखना ,स्वच्छंद नहीं बनना ,गुरु की आज्ञा पूर्वक चलना ब्रह्मचर्य कहलाता हैं।
राग -द्वेष को त्याग करने वाले जो पुरुष अपने मन रुपी नेत्रों से समस्त स्त्रियों को अपनी माता के समान देखते हैं उनके सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मचर्य होता हैं।
स्त्री -पुरुष और नपुंसक अकेले भी रहे परन्तु वेद नोकषाय के तीव्र उदय से उन्हें जो स्त्री -पुरुष अथवा दोनों की इच्छा होती हैं ,परस्पर रमण करने का भाव होता हैं वह अब्रह्म हैं। जो उस अब्रह्म -काम से उन्मथित पीड़ित नहीं हुआ हैं ,वह ब्रह्मचर्य माना गया हैं।
जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सारे सुन्दर अंगों को देखकर उनमे रागरूप बुरे परिणाम करनाछोड़ देता हैं वही दुर्दर ब्रह्मचर्य को धारण करता हैं। जो मुनि स्त्रियों के संग से बचता हैं ,उनके रूप को नहीं देखता हैं। काम -कथादि नहीं करता हैं ,उसके नवधा ब्रह्मचर्य होता हैं।
निम्म प्रकार का त्याग —
1. अनुभूत अंगना का स्मरण — मेने उस कलागुण विशारदा स्त्री को भोगा था ,इस प्रकार का चिंतन करना अनुभूत अंगना का स्मरण हैं।
2. तत्कथा स्मरण — ललना सम्बन्धी वार्ताओं को रुचिपूर्वक सुनना तत्कथा स्मरण हैं।
3. स्त्री संसक्त शय्यासन –रतिकालीन गंध द्रव्यों की सुवास से सुवासित और स्त्रियों से संसक्त शय्या -आसन -स्थान स्त्री संसक्त शय्यासन हैं।
4. बहुत सा आहार करना ,अपने शरीर को तथा मुख को स्वच्छ शुद्ध रखना ,गंध लगाना वा माला पहनना ४ गीत -बाजे सुनना
5. रागोत्पादक़ और स्त्री- पुरुषों के चित्रों से सुशोभित भवन में कोमल शय्या पर सोना वा बैठना,स्त्रियों की संगति करना, भोग भोगने के लिए धन ,वस्त्रादि का ग्रहण करना, पहले भोगे हुए भोगों का अपने मन में स्मरण करना, इन्द्रियों के विषयों में रत होने की लालसा रखना और समस्त रसों का सेवन करना ये ब्रह्मचर्य से घातक कारण हैं। जो मुनि इस दसों का त्याग कर देता हैं वही दृढ़व्रती कहलाता हैं।
दोष —
1. कामी पुरुषों का हृदय कभी शुद्ध नहीं हो सकता हैं अतः उनका कल्याण नहीं हो सकता हैं।
2. ग्लानि ,मूर्छा ,भृम,कम्पन ,श्रम ,स्वेद ,अंगविकार और क्षय रोग ,मैथुन से उपन्न होते हैं।
3. काम से ठगा हुआ मनुष्य चतुर भी मुर्ख हो जाता हैं ,क्षमावान क्रोधी हो जाता हैं ,शूर-वीर कायर हो जाता हैं ,गुरु लघु हो जाता हैं ,उद्यमी आलसी हो जाता हैं और जितेन्द्रिय भ्र्ष्ट हो जाता हैं ,काम ऐसा प्रबल हैं।
4. मदन की व्यथा बहुत दिन से बढ़ाये तथा पाले हुए चारित्र को ध्वंस कर देती हैं।
5. शास्त्राध्ययन ,धैर्य और सत्य भाषणादि को भी भुला देती हैं।
6. जिसके काम रुपी काँटा चुभता हैं वह प्राणी बैठने ,उठने ,सोने ,चलने ,भोजन करने में तथा स्वजनों में क्षण -भर भी स्थिरता को प्राप्त नहीं करता होता हैं।
7. कामबाणों से जर्जरित हुए मन में निमेष मात्र भी विवेक रूपी अमृत की बून्द नहीं ठहर सकती हैं।
लाभ —
1. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले मानवों को हिंसादि दोष स्पर्श नहीं करते हैं।
2. नित्य गुरुकुल में रहने वाले ब्रह्मचारी को सर्व गुण रुपी सम्पदाएँ सहज प्राप्त होती हैं।
3. ब्रह्मचारियों का हृदय शुद्ध होने से उनको परम धर्म की प्राप्ति होती हैं।
4. ब्रह्मचर्य के प्रभाव से मुक्ति स्त्री समस्त गुणों के साथ आकर स्वयं स्वीकार करती हैं ,फिर स्वर्ग की लक्षमी की क्या बात हैं।
इसलिए हमारे जीवन में ब्रह्मचर्य धर्म का बहुत महत्व हैं ,वैसे भी कहा गया हैं यदि पैसा की कमी कोई कमी नहीं ,स्वास्थ्य की कमी कुछ गया और यदि चारित्र गया सब कुछ गया। चरित्र का स्थान सर्वप्रथम हैं।
शील -बाढ़ नौ राख ,ब्रह्म-भाव अंतर लखो।
करि दोनों अभिलाख ,करहु सफल नरभव सदा।।
उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ ,माता बहिन सुता पहिचानो।
सहें वान -वरषा बहु सूरे ,टिके न नैन -बाण लखि कुरे।।
कुरे तिया के अशुचि तन में ,काम -रोगी रति करैं ।
बहु मृतक सडहिं मसान माहीं ,काग ज्यों चोंचें भरें।।
संसार में विषयाभिलाषा ,तजि गए जोगीश्वरा।
ज्ञानत धर्म देश पैड़ी चढ़के। शिव -महल में पग धरा।।
इस प्रकार उत्तम ब्रह्मचर्य व्रत में सब प्रकार के राग– द्वेष त्याग कर अपने आप में रमण करना और अपनी आत्मा का साक्षात्कार करना यह मुख्य लक्ष्य होता हैं। ही प्रभु सबके जीवन में यह धर्म भाव आये और वे भीमुक्ति पथ की ओर बढे। उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की जय हो।
— डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन