जब साधक तप ,त्याग धर्म को अंगीकार कर लेता हैं ,उस समय उसकी भूमिका संसार में रहते हुए भी अलग रहता हैं ,जैसे कमल कीचड में होते हुए भी कीचड से अलग रहता हैं। यह त्याग अब मानसिक अवस्था पर निर्भर रहता हैं।
ममेदमित्युपात्तेषु शरीरादिषु केषचित।
अभिसंधिनिवृत्तिर्या तदा किञ्चनयमुच्यते।।
धारण किये हुए शरीर ,पीछी ,कमण्डलु ,शास्त्र आदि में “यह मेरा हैं “इस प्रकार के अभिप्राय कि सर्वथा निवृत्ति को आकिंचन्य धर्म कहा गया हैं।
‘यह मेरा हैं ‘इस प्रकार कि अभिसंधि का त्याग करना आकिंचन्य हैं। उपात्त (एक क्षेत्रवगाही ) जो शरीर आदि परिग्रह हैं, उनमे संस्कार और राग आदि कि निवृत्ति के लिए ‘यह मेरा हैं’ इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना आकिंचन्य कहलाता हैं। जिसकेवह कुछ नहीं हैं वह अकिंचन हैं और अकिंचन के भाव वा कर्म को आकिंचन्य कहते हैं।
जो निस्पृह मुनि ,मन ,वचन और काय कि शुद्धता पूर्वक शरीर ,परिग्रह और इन्द्रियों के सुख में ममत्व का त्याग कर देते हैं उसको सुख देने वाला आकिंचन्य धर्म कहते हैं।
जिसका किंचन -किंचित भी नहिं हैं वह अकिंचन हैं। अकिंचन का भाव आकिंचन्य हैं। अपने से अत्यर्थ
सम्बंधित भी शरीर आदि से संस्कार को दूर करने के लिए”यह मेरा हैं ” इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग होना आकिंचन्य धर्म हैं।
जो मुनि सर्व प्रकार के परिग्रहों से रहित होकर और सुख -दुःख देने वाले कर्मजनित निजभावों को रोककर ,निर्द्वँदता से अर्थात निश्चिंतता से आचरण करता हैं उसके आकिंचन्य धर्म होता हैं। जो लोकव्यवहार से विरक्त मुनि चेतन और अचेतन परिग्रह को मन ,वचन ,काय से सर्वथा छोड़ देता हैं ,उसके निर्ग्रन्थपना अथवा आकिंचन्य धर्म होता हैं।
आकिंचन्य धर्म को धारण करने के लिए आकिंचन्य धर्म के गुणों का एवं परिग्रहादि के दोषों का चिंतन करना चाहिए।
गुण —-
1. जैसे -जैसे शरीरादि में निर्ममत्व बढ़ता जाता हैं वैसे -वैसी सज्जनों का पाप निरोध होता जाता हैं।
2. आकिंचन्य धर्म धारण करने से कर्मों की निर्जरा होती हैं।
3. इन्द्रियों के विषयों और परिग्रहों के सुख का जितना त्याग कर सकते हैं उतना अवश्य कर देना चाहिए। तथा जिनका त्याग नहीं कर सकते उनमे समस्त दोषों का कारण ममत्व अवश्य छोड़ देना चाहिए। क्योकि जो परिग्रह का एवं ममत्व का त्याग करते हैं उनके धर्म का सागर आकिंचन्य धर्म होता हैं।
4. निग्र्रंथता से अंत में प्राप्त होने वाली अंतरहित मोक्षलक्ष्मी स्वयं प्राप्त होती हैं।
5. इस असंगता की इंद्र भी सेवा करने में तत्पर रहते हैं और दुष्ट काम भी किंकर बन जाता हैं।
6. परिग्रह पिशाच के छूट जाने से आत्मीय आनंद रूपी अमृत को झराने वाली चित्त संतति किसके द्वारा वर्णनीय नहीं हैं।
हानि —
जो परिग्रहादिकों में ममत्व धारण करते हैं उनके समस्त दोषों के समूह आ उपस्थित होते हैं। जो सचित्त और अचित्त िरूप इस परिग्रह के संग्रह में तत्पर रहते हैं ,तथा जिनका मन अपने अधीन नहीं हैं ऐसे पुरुष दूसरों के द्वारा की गई मानहानि तथा प्राणहानि आदि अनेक कलेशों को प्राप्त होते हैं।
इसका मतलब साधक आत्मकल्याण के पथ पर बढ़ने में कोई भी परिग्रह अपने पास नहीं रखता हैं। यहाँ सिर्फ भावो की निर्मलता पर साधना रहती हैं।
परिग्रह चौबीस भेद ,त्याग करे मुनिराज जी।
तिसना भाव च्छेद, घटती जान घटाइए।।
उत्तम आकिंचन्य गुण जानो ,परिग्रह -चिंता दुःख ही मानो।
फांस टंक सी तन में सालें , चाह लंगोटी की दुःख भाले।।
भाले ना समता सुख कभी नर ,बिना मुनि मुद्रा धरै।
धनि नगन पर तन -नगन ठाड़े ,सुर– असुर पायनि परै।।
धरमाही तिसना जो घटावैं ,रूचि नहीं संसार सौं।
बहु धन बुरा हूँ भला कहिये ,लीं पर उपगार सौं।।
इस प्रकार मुनिराज समस्त परिग्रह का त्याग कर निर्बाध रूप से अपने आत्मकल्याण में लीं रहते हैं। कारण छोटीसे वस्तु का परिग्रह भी मन में /शरीर में फांस जैसी कष्ट देती हैं। इसलिए सम्पूर्ण त्याग में ही सुख निहित हैं। सबके जीवन में आकिंचन्य धर्म का आविर्भाव हो ऐसी मंगल कामना करता हूँ।
— डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन