आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज दिगम्बर जैन परंपरा के एक ऐसे महान संत हैं जो सही मायने में साधना, ज्ञान, ध्यान व तपस्यारत होकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर हैं। वे पंचमकाल में चतुर्थकाल सम संत हैं। महाप्रज्ञ आचार्यश्री की तपस्तेज सम्पन्न एवं प्रसन्न मुद्रा प्रायः सभी का मन मोह लेती है। आचार्यश्री के कंठ में भी अपने गुरू के समान ही सरस्वती का निवास है। परम पूज्य आचार्यश्री इस युग के ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने श्रुत ज्ञान को आधार बनाकर अपने अनुभव चिंतन से मिश्रित दुर्लभ तत्व प्ररूपणा की है। आचार्यश्री के संयममय पचास वर्ष की चर्या जहां विशिष्टता लिए हुए है वहीं पर श्रुत अभ्यास के साथ बिताये हुए पचास वर्ष तत्व रसिकों के लिए नई-नई चिंतन धारा प्राप्त हुई है। सम्पूर्ण जैन समाज ऐसे महा मनीषी का पचासवां संयम स्वर्ण महोत्सव विविध आयोजनों के साथ मना रहा है।
परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अनेक प्रकार के साहित्य की रचना की है। उसमंें ‘षड्शती’ (आचार्यश्री द्वारा रचित संस्कृत शतकों का संकलित ग्रंथ) एक है। परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्रेष्ठ विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित श्रमणशतकम्, भावनाशतकम्, निरंजनशतकम्, परीषहजयशतकम्, सुनीतिशतकम् और चैतन्यचन्द्रोदयशतकम् का संग्रह ‘षट्शती’ में किया गया है। आचार्यश्री ने संस्कृत एवं हिन्दी दोनों ही भाषा में साहित्य को समृद्ध किया है। जैन संस्कृत काव्यों की लम्बी श्रृखंला में ‘षड्शती’ एक दैदीप्यमान मणि के समान है। जो कभी भावों की विशुद्धता के कारण धवल मुक्ता-सी प्रतीत होती है। तो कभी अपनी सरसता के कारण मणि प्रतीत होती है। अध्यात्म के प्रति प्रगाढ़ आसक्ति के कारण जहां आचार्यश्री अध्यात्म योगीराज प्रतीत होते हैं वहीं काव्य रस से सरोबार ‘षड्शती’ के कृतिकार होने पर काव्य रसिक प्रतीत होते हैं। प्रगाढ़ ज्ञान की सूर्य की रश्मियों से निर्मित ‘षड्शती’ इन्द्रधनुष की छटा बिखेरती अद्भुत काव्य कृति है। ज्ञात इतिहास में भारतवर्ष की संपूर्ण भारतीय परंपरा में अनेक मनीषी हुए हैं। जिनके द्वारा एक से अधिक शतकों का निर्माण हुआ है फिर भी पांच से अधिक शतकों के निर्माता विद्वान् कवि का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।परम पूज्य आचार्यश्री ने संस्कृत भाषा में छह शतकों की रचना कर एक इतिहास रचा है। दिगम्बर जैन श्रमण परंपरा में परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का यह अनुदान हमें गौरव प्रदान कर रहा है कि जिन्होंने षट् शतकों की रचना की है।
षट्शती में अनेक स्थानों पर पूज्य आचार्यश्री ने व्रत की महिमा का वर्णन किया है। हमारे पूर्वाचार्यों ने जिस प्रकार से व्रत का स्वरूप बताया है उसी के अनुरूप पूज्य आचार्यश्री ने व्रतों के बारे में अपने शतकों में वर्णन वर्तमान परिपेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए किया है।
व्रत का अर्थ पाप रहित जीवन व्यतीत करना है तथा असामाजिक और छुपकर किये जाने वाले कार्य को पाप कहते हैं। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने व्रत की परिभाषा में कहा है – इदं कत्र्तव्यमिदं न कत्र्तव्यं इति व्रतं अर्थात् यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है, ऐसा नियम करना व्रत है। इससे समाज में बैर विरोध बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों पर नियंत्रण होता है।
तत्वार्थसूत्रकार ने व्रत के पांच भेद करते हुए लिखा है- हिंसा, अनृत, अस्तेय, अब्रह्मा तथा परिग्रह से विरति व्रत है। देशव्रत और सर्वव्रत की दृष्टि से इसके अणुव्रत और महाव्रत ऐसे देा भेद होते हैं।
परमात्मप्रकाशकार ने लिखा है कि -सर्वनिवृत्ति के परिणाम को व्रत कहते हैं। आचार्य सोमदेव ने व्रत के सम्बंध में लिखा है कि- सेवनीय वस्तु का संकल्प पूर्वक करना व्रत है अथवा अच्छे कार्यों में प्रवृत्ति और बुरे कार्याें से निवृत्ति को व्रत कहते हैं। पण्डित प्रवर आशाधर जी ने व्रत की परिभाषा में वृद्धि करते हुए लिखा है कि- किन्हीं पदार्थों के सेवन अथवा हिंसादि अशुभ कार्यों का नियत या अनियत काल के लिए संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है अथवा पात्र दानादि शुभकर्मों में उसीप्रकार संकल्प पूर्वक प्रवृत्ति करना व्रत है।
तत्वार्थसूत्रकार ने पांच अणुव्रतों के विवेचन के बाद व्रती का लक्षण करते हुए कहा है कि जो शल्य रहित होता है, वह व्रती है। ऐसे व्रतों को सूत्रकार ने दो भेद किए हैं- (1) अगारी, (2) अनगार। अणुव्रतों को पालन करने वाला अगारी कहलाता है। इतना कहने के बाद सूत्रकार ने अगारी को दिग्देशादि सात व्रतों से सम्पन्न बताया है। और मारणान्ति की सल्लेखना का विधान किया है।
हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पंाच दोष या पापों से स्थूलरूप या एक देशरूप से विरत होना अणुव्रत है। जैन साधना का मूलाधार ये पंचव्रत हैं। इस पर ही जैन साधना का भवन टिका है। इसके अभाव में साधना की शुरूवात ही नहीं हो सकती है। जैन श्रावक के लिए अणुव्रतों का पालन नितान्त आवश्यक माना जाता है।
तत्वार्थसूत्रकार ने देशव्रत को अणुव्रत और सर्वव्रत को महाव्रत कहा है।
यावज्जीवन हिंसादि पापों को एकदेश या सर्वदेश निवृत्ति को व्रत कहते हैं। वह दो प्रकार का है-श्रावकों के अणुव्रत या एकदेशव्रत तथा साधुओं के महाव्रत या सर्वदेशव्रत होते हैं। इन्हें भावनासहित निरतिचार पालने से साधक को साक्षात या परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः मोक्षमार्ग में इनका बहुत महत्व है।
व्रत की आगम के परिपे्रक्ष्य में हम जब उक्त परिभाषाओं को दृष्टिगत रखते हुए पूज्य आचार्यश्री द्वारा रचित षट्- शतकों पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं के आचार्यश्री ने अनेक स्थानों पर व्रत और उसकी महत्ता के बारे में उल्लेख किया है तथा व्रतों की महिमा का सुन्दर विवेचन पढ़ने वाले की आत्मा को आनंदित कर देता है ।
ऐसे पवित्र व्रतों को ग्रहण करने का सुयोग्य कौन होता है, इसके बारे में जानना आवश्यक है। आचार्यश्री ने चैतन्यचन्द्रोदयशतकम् के श्लोक नं0 54 में लिखा है कि –
मिथ्या च माया च निदाननामा, शल्यत्रयाणीति विहाय सम्यक्।
गृहस्थसम्बन्धि गृही गृहीतुं, व्रतं सुयोग्यो लघूपापभार:।। 54।।
इसके दोहा पद्यानुवाद की बड़ी ही सुंदर पंक्तियां हैं –
शूल लगा पद चल ना सकता, शल्य रहित ही व्रती बने।
व्रती नहीं व्रत लेने भर से, ऐसे जग में व्रती घने।
मिथ्यात्वादिक तीन शल्य तज, अणु गुण शिक्षा व्रत धरे।
पाप भार कम करके श्रावक, बुधजन आदृत हो प्यारे।।54।।
अर्थात् व्रती बनने का इच्छुक भव्य गृहस्थ मिथ्या, माया और निदान नामक तीनों शल्यों को अच्छी तरह छोड़कर स्थूल पाप का त्याग करते हुए अल्प पाप का भार लिए गृहस्थ सम्बंधी श्रावक के अष्टमूलगुणों के साथ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप व्रतों को ग्रहण करने के लिए सुयोग्य होता है। व्रती व्रत लेने मात्र से नहीं है, बल्कि उनका दृढता से पालन करने वाले ही व्रती हैं।
जो व्यक्ति लोभ के वशीभूत होकर व्रतादि ग्रहण कर लेते हैं उनके लिए आचार्यश्री सुनीति शतक में लिखते हैं – कि मात्र वह बाह्य व्रती है, अन्तरंग से नहीं। ऐसे व्रतियों के लिए वह बड़ा ही सुंदर उदाहरण देते हैं कि जिस प्रकार हाथी के द्वारा निगला हुआ कैंथा बाहर में पूर्ण दिखता है पर भीतर सार रहित होता है।
उक्त श्लोक के पद्यानुवाद में बडे़ ही सरल शब्दों में इसको समझाया गया है –
काल रूप ले लोभ अनल वह जीवन में जब खिलता है।
सुधी जनों का व्रती जनों का अपनापन ही जलता हैै।।
भीतर में नहिं भले बाह्य में भेष-गात्र वह भार रहो।
निगला गज ने केंथ निकलता शेष मात्र बस बाहर ओ।।08।।
जो सुयोग्य व्रती श्रावक होता है जीवन पर्यंन्त व्रती श्रावक ही नहीं बना रहता है बल्कि स्वयं पापों से बचाता हुआ मुनिव्रत धारण की भावना करता है। इस संबंध में आचार्यश्री ने 60वें श्लोक में लिखा है जिसका भावार्थ है -‘वह व्रती श्रावक पाप के सम्बंध से अपनी आत्मा की रक्षा करता हुआ जिनेन्द्र देव की पूजा, स्तुति, वंदना में व्रतों को शुद्ध करने की भावना में अधिकांश अपना समय व्यतीत करता हुआ यतियों-मुनियों की अनुगमनता-अनुकरणता को प्राप्त करता है। अर्थात् वह व्रती श्रावक स्वयं को पापों से बचाता हुआ मुनिव्रत धारण की भावना करता है।’
‘कोई कहता है कि व्रतों के पालन से मात्र पुण्यकर्म की वृद्धि व मात्र पुण्य बंध होता है। वह नवीन कर्म की निर्जरा नहीं होती। इस प्रकार कहने वाले के लिए उत्तर देते हैं कि ऐसा नहीं है। उसी से पूछते हुए आचार्यश्री कहते हैं कि बताओ फिर कर्म की हानि अर्थात् निर्जरा के बिना इस पंचम गुणस्थान में प्रवेश कैसे हो सकता है? अर्थात् व्रती बनने वाले श्रावक के व्रतों से पापकर्म का संवर होता है और पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है तथा पुण्य का बंध भी होता है। ऐसा आगम सिद्धांत है। तत्वार्थसूत्र में निर्जरा के स्थानों में श्रावक को भी ग्रहण किया है।’
‘कोई कहता है कि गृहस्थ व्रती जब सामयिक में प्रविष्ट-लीन होता है तब वह शुद्धोपयोग रूप अमृतपान से संतुष्ट होता है? इस पर आचार्यश्री कहते हैं कि ऐसा नहीं, क्योंकि तृतीय प्रत्याख्यानावरणकषाय के मंद होने पर उस शुद्धोपयोग की भावना में शुभोपयोग होता है, शुद्धोपयोग नहीं।’
व्रतों की महत्ता बताते हुए आचार्यश्री ने सुनीति शतक में 10वें श्लोक में लिखा है, जिसका भावार्थ है कि- ‘हे सखे! इस भूमितल पर अव्रती जनों के विद्वानों के भी स्वभाव से ज्ञान के विषय में अप्रधानता-वस्तु के निरूपण में गौणता अथवा रत्नत्रयरूप सकल व देश संयम रूप गुणरूपता शोभित नहीं होती है। यथा शूकर के केशों में न स्पर्शनीय, न दर्शनीय, न कोमलता, न नवीनता देखी जाती है।’
अर्थात् असंयमी विद्वान् की भी स्वभाव से ज्ञान विषयक अप्रधानता सुशोभित न हो। जैसे कि पृथ्वी पर सूकर के बालों में न स्पर्श है , न मनोहरता है, न कोमलता है और न नूतनता है।
जो हिंसादि पांच पापों में संलग्न हैं, उनके लिए आचार्यश्री सम्बोधित करते हुए सुनीतिशतक में कहते हैं कि-‘ पाप से पाप विनाश को प्राप्त नहीं होता किन्तु पुण्य मनुष्य को पवित्र करता है। जैसे मल से मल नाश को प्राप्त नहीं होता। अतः मल धोने के लिए मल बिल्कुल व्यर्थ किन्तु जल के द्वारा वह मल शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है।’
व्रतों की रक्षा के लिए मन को सदैव पापों से दूर रखने के लिए आचार्यश्री ने सुनीति शतक में लिखे श्लोक संख्या 48 का भावार्थ है कि -शरीर से होने वाला पाप अणुप्रमाण है, वचन और शरीर से होने वाला पाप उससे अधिक है और मन से होने वाला पाप सुमेरूप्रमाण है-सबसे अधिक है, इसलिए पाप से मन सदा दूर रहे।’
अणुव्रती हो चाहे महाव्रती, व्रतों के पालन का एकमात्र लक्ष्य कर्मक्षय होना चाहिए, न कि भोगोपभोग की प्राप्ति। इस सम्बंध में पूज्य आचार्यश्री ने बड़ा ही सुंदर विवेचन सुनीति शतक (श्लोक संख्या 50) में किया है –
सागारको वाप्य-नगारको वा, कर्मक्षयार्थं निरतोस्तु धर्मे।
करोतु कार्यं कृषकः स काष्र्यं, धान्याय शस्यं न तृणाय हास्यम्।।50।।
अर्थात् सागार हो चाहे अनगार, उसे कर्मक्षय के लिए ही धर्म में लीन होना चाहिए, भोगोपभोग प्राप्ति के लिए, क्योंकि किसान खेती का कार्य अन्न के लिए करता है तो प्रशस्त है और घास के लिए करता है तो हास-उपहास का पात्र होता है।
आचार्यश्री ने व्रतों में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मचर्य व्रत को बताया है। सुनीति शतक में लिखा है-
व्रतेषु शीलं च दमो दमेषु, खानां वरोऽयं रसनेन्द्रियस्य।
दानं तु दानेष्वभयाह्यं वै, धर्मेषु गदितोऽप्यहिंसा।।
अर्थात् व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है, दमन में इन्द्रियों का दमन, उसमें भी रसनेन्द्रिय का दमन श्रेष्ठ है, दानों में अभयदान श्रेष्ठ है और धर्मों में अहिंसाधर्म श्रेष्ठ है।
शीलव्रत की महिमा को आचार्यश्री ने भावनाशतकम्, परीषह जयशतकम्, सुनीतिशतकम् में लिखा है।
व्यभिचारी अविवाहित मनुष्य की अपेक्षा विवाहित-स्वदारसंतोषी गृहस्थ श्रेष्ठ है। उसकी श्रेष्ठता का कारण पाप की हानि और धर्म में रूचि है। चारित्र और शील का संयोग पाकर साधारण ज्ञान भी पूर्णता को प्राप्त हो जाता है। जैसे उत्तम कसौटी का संयोग पाकर मणि का मूल्य इतना बढ़ जाता है कि वह सज्जनों के कंठप्रदेश को प्राप्त हो जाता है। संसार में वह वह पतिव्रता स्त्री हाथी जैसी चाल से सुशोभित हो, संसार चतर्गतियों से सुशोभित हो, सिद्ध परमेष्ठी प्रसिद्ध केवलज्ञान से से अथवा अगतिता-गतिराहित्य से सुशोभित हो, प्रातः काल वायु से सुशोभित हो और मनुष्य इस शीलव्रत से सदा सुशोेभित हो। आचार्यश्री स्वयं अपने लिए कहते हैं कि -‘शीलरथो मयाऽऽरूढो…’ अब मैंने इस सुन्दर शीलरथ पर आरोहण किया है जिससे वह हिंसक यम स्वयं ही अत्यंत भयभीत दिखाई देता है।
षट्शती ( आचार्यश्री के शतकों का संग्रह ग्रंथ) में आचार्यश्री ने परिग्रह में लिप्त प्राणियों के लिए अनेक स्थानों पर खूब डांट लगायी है और बताया है कि परिग्रह त्याग के बिना मुक्ति संभव नहीं है।
वस्त्र से वेष्टित लोहा रसायन से सुवर्णता को प्राप्त नहीं होता और परिग्रह से बद्ध-सहित ज्ञान तप की उज्जवलता को प्राप्त नहीं होता। परिग्रह को पाप जानकर शीघ्र छोड़ो। सबसे पहले बाह्य परिग्रह त्याग की बात आचार्यश्री ने की है। निरंजनशतकम ् में श्लोक संख्या 58 का पद्यानुवाद पढ़कर इसका महत्व हम समझ सकते हैं-
औचित्य! है प्रथम अम्बर को हटाया, पश्चात् दिगम्बर विभो! मन को बनाया।
रे! धान का प्रथम तो छिलका उतारो, लाली उतार, फिर भात पका, उड़ालो।।58।।
अर्थात् भव्य जीव पहले बाह्य परिग्रहों का त्याग करता है, फिर रागादि भावों को दूर करता है। जैसै रसोई बनाने वाला पहले तुषरूप तृण को बीनता है पश्चात् जौ के मल-ललाई आदि को ग्रहणकर दूर हटाता है। धान्य की लालिमा को बाद में मूसलादिक के द्वारा दूर हटाता है।
परिग्रह विद्वेष का मूलकारण है। परिग्रह विद्वेषभाव को धारण अथवा उत्पन्न करने वाला है परिग्रह युद्ध का प्रमुख मार्ग है। मोक्षमार्ग में संचरण करने वाले मुनि के लिए तो अल्प परिग्रह भी उस तरह विघ्न करने वाला है, जिस तरह कि वन में विचरने वाले मयूर के लिए वायु से ताड़ित उसके निजी पिच्छों का समूह। मुनि के लिए परिग्रह तो परिग्रह है ही परन्तु समाधि के समय संघ का भार -दायित्व भी परिग्रह हो जाता है। जैसे वृद्ध के लिए सुखदायक लघु आभूषण और वस्त्र भी भारी हो जाते हैं। धन के उपार्जन और संरक्षण में लगा मानव सुख के बिना दुखी होता हुआ मर जाता है, जैसे इस जगत् में सुरागाय पूंछ के बालों की रक्षा में संलग्न रह पीड़ा को प्राप्त होती है। अतः मोह की शक्ति-समर्थता जगत् के जानने योग्य नहीं है। परिग्रह में आसक्त मनुष्य धन के सुख का भोग किए बिना ही मर जाता है।
आचार्यश्री ने ‘सुनीतिशतक’ में आज के संदर्भ में बहुत ही महत्वपूर्ण वर्णन करते हुए कहते कहा है – कि परिग्रह का त्याग करने वाले साधु ह,ैं यदि वे मन से उसी परिग्रह में रमते हैं तो वे मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। जैसे सांप कांचुली तो छोड़ देते हैं परन्तु विष से रहित नहीं होते।
‘सुनीतिशतक’ में आचार्यश्री ने दान के पात्र, दाता की श्रेष्ठता और दान कैसे देना चाहिए इस पर प्रकाश डाला है। आचार्यश्री कहते हैं कि -‘दान योग्य पात्र को ही देना चाहिए और देकर यदि फल के प्रति निःपृह रहता है तो वह दाता दोनों लोकों में कीर्ति केा अर्जित करता है।’ दान विनय के साथ दिया गया दान ही कल्याणकारक है। आचार्यश्री ने दानों में अभयदान सर्वश्रेष्ठ बताया है। दान के सम्बंध में सुनीतिशतक में आज के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण बात कही है। ‘अन्याय से अर्जित धन को देने वाले दाता की अपेक्षा न्यायमार्ग का अनुसरण करने वाला दान नहीं करने वाला श्रेष्ठ है।
छाता दयालुः परदुःखवैरी, स श्रेष्ठिनः स्यात् कृपणात् प्रशस्ततः।
अन्यायवित्तं ददतस्तु दातु-,र्वरोऽप्यदाता नयमार्गगामी।।’
आज हमारी समाज में जो दान दिया जा रहा है, उसके संदर्भ में पूज्य आचार्यश्री के उक्त कथन पर निश्चित ही हमें गंभीरता पूर्वक चिंतन करने की आवश्यकता है।
आचार्यश्री कहते हैं कि जीवन को सार्थक करना है तो व्रतों को धारण करना होगा। व्रतों के धारण के बिना जीवन का कल्याण संभव नहीं है। जब एक पशु भी व्रतों को धारण कर सकता है तो हम क्यों नहीं धारण कर सकते? ‘चैतन्यचन्द्रोदयशतकम्’ के 61वें श्लोक में कहा है कि- वे व्याघ्र आदिक मांसाहारी और हिंसक होने पर भी मांस को त्याग चुके हैं और रात्रि में भोजन भी नहीं करते, पापों से डरते हुए धर्म और धर्म के फल में प्रीति रखते हुए तत्वों को जानने वाले, दर्पण के समान आदर्शस्वरूप , भाग्यशाली हैं। ये जीव पशु होकर भी कल्याण के पथ पर चल रहे। उनके जीवन को देखकर पापों का त्याग कर महाव्रती व अणुव्रती बनकर जीवन सार्थक करो।
आचार्यश्री ‘श्रमणशतक’ में कहते हैं कि व्रतों को धारण करने से जगत्त्रय के द्वारा स्तुत निज शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है। समस्त व्रतीजन यथार्थ में रत्नात्रय को प्राप्त हों माया, मिथ्यात्व और निदान रूप शल्य को प्राप्त न हों। साथ ही, उस रत्नत्रय रूप लक्षण से जगत्त्रय के द्वारा स्तुत निज शुद्ध आत्मा का स्पर्श-अनुभव करें।
उपसंहार:
आचार्यश्री ने ‘षट्शती’(आचार्यश्री के शतकों का संग्रह ग्रंथ) में व्रतों की महत्ता का अनेक स्थानों पर सारगर्भित व प्रेरणादायी विवेचन किया है। सारांश रूप में हम इस प्रकार समझ सकते हैं-सुयोग्य व्रती वह है जो तीन शल्यों से रहित हो, स्थूल पांच पापों का त्यागी हो, अष्टमुलगुणों को पालन करने वाला हो, पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को धारण करने वाला हो। जो व्यक्ति मात्र बाह्य रूप से व्रत ले लेते हैं परंतु अंतरंग से उनका पालन नहीं करते हैं वह व्रती नहीं है। जो अणुव्रतों को ग्रहण करते हैं उनका लक्ष्य लक्ष्य मुनि बनकर कर्मक्षय का होना चाहिए। व्रती बनने वाले श्रावक के व्रतों से पापकर्म का संवर होता है और पूर्व बद्ध कर्म की निर्जरा होती है तथा पुण्य का बंध होता है। पापों के निवारण व सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए जीवन में व्रतों को अंगीकार करना चाहिए, व्रतों की जीवन में महती उपयोगिता है। व्रतों की रक्षा के लिए सदैव हमें अपने मन को पापों से दूर रखना चाहिए।
पूज्य आचार्यश्री के उपदेश हमें हमेशा जीवन-समस्याओं संदर्भों की गहनतम गुत्थिओं के मर्म का संस्पर्श करते हैं, जीवन को उसकी समग्रता में जानने और समझने की कला से परिचित कराते हैं, उनके साधननमय तेजस्वी जीवन को, उनकी साहित्य साधना को शब्दों की परिधि में बांधना संभव नहीं है। हां, उसमें अवगाहन करने की कोमल अनुभूतियां अवश्य शब्दातीत हैं।
पूज्य आचार्यश्री के संदेश युगों-युगों तक सम्पूर्ण मानवता का मार्गदर्शन करें, हमारी प्रमाद-मूच्र्छा को तोड़ें, हम अंधकार से दूर प्रकाश के उत्स के बीच जाने का मार्ग बताते रहें, हमारी जड़ता की इति कर हमें गतिशील बनाएं, सभ्य, शालीन एवं सुसंस्कृत बनाते रहें, यही हमारे मंगलभाव हैं, हमारी प्रार्थाना है ।
इस युग का सौभाग्य रहा, कि गुरूवर इस युग में जन्में।
अपना यह सौभाग्य रहा, गुरूवर के युग में हम जन्में।।
- -डाॅ. सुनील जैन संचय