मिथ्यादृष्टि जीव सभी देव, शास्त्र, और गुरुओं को सामान मानता हुआ उनकी विनय, पूजा,वंदना आदि करता है किन्तु जिसने सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का स्वरुप आगमानुसार जान लिया है, उसने भगवान् का स्वरुप जान लिया है जो कि-
- वीतरागी-राग-द्वेष,कामादि से रहित हो
- सर्वज्ञ-संसार के समस्त पदार्थों को उनकी, त्रि-कालीन समस्त पर्यायों सहित जान लिया हो
- हितोपदेशी-जिन्होंने संसार के समस्त जीवों के हित,कल्याण के लिए मोक्षमार्ग का निष्पृह हो, उपदेश दिया हो, सच्चे भगवान् है!
विचारने से निष्कर्ष निकलता है,कि यह गुण अन्य मतियो के देवों/भगवान पर घटित नहीं हो पायेगे क्योकि सर्वप्रथम वे राग-द्वेष-कामादि से रहित नहीं है,सर्वज्ञ नहीं है,तथा उन्होंने जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश भी नहीं दिया है क्योकि उन्हें स्वयं मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ,वे उपदेश कैसे देते?
अत: जिसने सच्चे देव,शास्त्र,गुरु का स्वरुप जान कर श्रद्धान कर ह्रदय में बैठा लिया है, वह अन्य देव,शास्त्र,गुरु की पूजा,वंदना करेगा ही नहीं! यदि करेगा तो इसका मतलब है कि उसे सच्चे देव,शास्त्र,गुरु पर श्रद्धान नहीं है!
अत: मिथ्यात्व से छुटने के लिए नियम ले कि-
- मै अपने दिगम्बर जैन धर्म के सच्चे देव,शास्त्र,गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी देवी-देवता की पूजा नही करूंगा।
- मिथ्यात्व से बचने के लिए;मालिक,व्यापारियो,जिस मे कोई संसारिक लाभ जुड़ा हो,के साथ भी, उनके मंदिर मे जाकर पूजा,विनय आदि नही करूंगा। हमारे इस प्रकार के व्यव-हार से किसी को बुरा नही लगेगा जब उन्हे पता लगेगा कि यह पक्का जैनी,अपने धर्म मे निष्ठावान है।
सामंतभद्र आचार्य ने कहा है कि किसी भय,आशा,स्नेह अथवा लोभ से सम्यग्दृष्टि,अन्य देवी-देवताओं की विनय,प्रणाम नहीं करता किन्तु अविनय भी नहीं करता! जैसे अन्यमति-यों के मंदिर में जाएगा तो उनके नियमानुसार टोपी आदि पहनेगा लेकिन नमोस्तु,वंदना, चढ़ावा आदि नहीं करेगा क्योकि वह अपने श्रद्धांन में दृढ है !
3. अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए अन्य मतियों के मंदिरों में जाकर पूजन आदि नहीं करना चाहिए,यह मिथ्यात्व है और मनो कामनाओं की पूर्ती,शुभ कर्मों के उदय के बिना हो ही नहीं सकती! जैन कर्मसिद्धांत के अनुसार अपने देव पूजन कर अपने पापरूप कर्मों का पुन्यरूप परिणमन कराने का प्रयास कर ही मनोकामनाओं की पूर्ती हो सकती है!
4. अपने मंदिरों में मनोकामनाओं की पूर्ती के लिए; पूजा,पाठ,अनुष्ठान करवाना भी अनुचित है क्योकि सांसारिक विषयभोग आत्मा के लिए कल्याणकारी नही है।भगवान का पूजा,विधानादि सांसारिक विषय भोगो की पूर्ति के लिए नही किया जाता है।यदि हम भोगो को ईष्ट/उपादेय ओर आत्मकल्याण को अनिष्ट/हेय मानते है,तो मिथ्यादृष्टि है।
प्रभु-भजन करने से स्वयं पापों का नाश,सांसारिक सुखो की परंपरा से,मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है।पूजा-प करने से हमारे अशुभकर्म,शुभकर्म मे परिणमन करते है, अशुभ कर्म की फलदेने की शक्ति कम होती है,पुण्यकर्मो का बंध होता है,जिससे सांसारिक सुख स्वयं ही मिलते है,ये खेती मे भूसे के समान है न कि गेहु।पूजा आत्मकल्याण-मुक्ति के लिए करते है न कि सांसारिक सुखो की प्राप्ति के लिए,सांसारिक सुखों की वाँछा से पूजादि करने से मिथ्यादृष्टि हो जाते है!
5. जब अन्य मतियों के देवी-देवताओं द्वारा चमत्कार स्पष्ट रूप से दिखते हो,तब अपने मतियों को,उनके पास जाने से कैसे रोका जा सकता है ?
भगवान् सिद्धालय में विराजमान है,उन्हें हम से कुछ लेना देना है ही नहीं,वे चमत्कार नहीं दिखाते!भगवान् महावीर /पार्श्वनाथ कोई भी हमारे संकट दूर नहीं करेंगे! हमारे द्वारा इनके गुणों की,अराधना करने से पुन्य प्राप्ति होगी जिससे स्वयं ही कष्ट दूर होंगे! हम पूजा इनकी वीतरागता,सर्वज्ञता, हितोपदेशिता गुणों के लिए करते है,उन की प्रेरणा से उनके गुण को अपने में उत्पन्न करने के लिए पूजा करते है! यदि किसी मंदिर के पञ्च-कल्याणक के बाद कोई चमत्कार दिखता है तो; चमत्कार, भगवान् नहीं करते बल्कि उस मंदिर से संबधित कोई व्यंतरदेव चमत्कार दिखाते है!
अन्य मतियों के देवी-देवता को पूजना क्या ठीक है?
अन्य मतियों के देवी-देवता ही नही, अपने जैन शासन के भी देव हम से बड़े/उच्च नहीं है! शास्त्रों के अनुसार यमपाल चंडाल ने एक नियम लिया था, ’चतुर्दशी को वह जीवों को नहीं मरेगा, सूली नहीं दूंगा”,जिस कारण से राजा ने उसे नदी में फिकवा दिया! देवो ने उस यम पाल चांडाल की आकर पूजा करी! अत: इस अपेक्षा से मनुष्य सबसे बड़ा है! मुनि महाराज, देवो के हाथ से आहार ग्रहण नहीं कर सकते क्योकि उनकी अपनी अन्य विक्रियाये अन्य देवियों के साथ रमण में लगी हुई है जिससे उनके परिणाम सही नहीं है! वो कही भी खड़े हो, उनकी पवित्रता नहीं होती! यहाँ उनका वैक्रियिक शरीर आया है, उनका मूल शरीर तो स्वर्ग में भोगो में लगा है! अत: जिनके भाव ही अच्छे नही है वो हम मनुष्य से अच्छे कैसे हो सकते है।किसी भी शास्त्र मे देवो की पूजा करने का विधान नही है। अतः अन्य देवी-देवता- ओ की भी पूजा नही करनी चाहिए। श्रद्धान ऐसा बनाये कि केवल वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोप- देशी देव ही पूज्य हैं।
जैनो के नवदेवता पांच परमेष्ठी, जिन मंदिर, जिन बिंब, जिनवाणी और जिनधर्म है। इनके अतिरिक्त किसी की पूजा करनी ही नही है।
एक सेठ-सेठानी के संतान नहीं होती थी!सेठानी की अनुमति से सेठ जी ने संतान की इच्छा पूर्ती के लिए दूसरा विवाह कर लिया,बच्चे भी हो गए! दूसरी पत्नी की माँ के पूछने पर उसने कहा की सेठ जी पहली पत्नी को अधिक चाहते है,जिससे माँ दुखी हुई,उसने सोचा की पहली पत्नी मर जाए तब उसकी बेटी को सुख मिलेगा! एक दिन माँ ने साधू को भिक्षा दी,उस साधू ने पूछा तुम्हारे चेहरा उदासीन क्यों है?उन्होंने कारण बताया! साधू ने कापाड़ी विद्या सिद्ध करी, और उसके पूछने पर माँ ने कहा सेठ जी की पहली पत्नी का सर काट कर लाओ!वो कापडीविद्या गयी,सेठानी के सर के चारों ऒर चक्कर काटती रही!किन्तु सेठानी सामयिकी कर रही थी वह उसका बाल बांका नहीं कर सकी,वह लौट आयी! देखिये देव,सेठानी का कुछ नहीं बिगाड़ सकी!१५ दिन बाद कापडीविद्या पुन:गयी,सेठानी पूजा कर रही थी,उस विद्या को क्रोध आया और वह दूसरी पत्नी का सर काट कर ले आयी और माँ को सुपर्द कर दिया! अब माँ बहुत विलाप करने लगी! वास्तव में सेठानी पुण्यात्मा थी उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता!
अगर हमारे घर में देवी-देवता की पूजा होती है, उसे बंद करने से हमें भय लगता है, तो मात्र इच्छा शक्ति की कमी है और कुछ नहीं!
परम्परा से चली आ रही देवी देवताओं की पूजा बंद करनी है तो उनका अनादर मत करे, उन्हें विनय पूर्वक ले जाकर किसी निकट की नदी में यह कहते हुए कि “मुझे अभी तक श्रद्धा थी किन्तु अब नहीं है,अब मुझे सच्चे देव मे श्रद्धा हो गई है मै उनकी ही अराधना करूंगा।इसलिए विसर्जित कर रहा हूँ,विसर्जित कर दे।
कुछ परिवार मे जैन मत के साथ-साथ अन्य मतो की भी अराधना होती है ऐसी परिस्थि–तियो मे क्या करा जाय
सर्वश्रेष्ट है कि सभी परिवार वाले सच्चेधर्म का पालन करने लगे। यदि यह संभव नही हो तब स्वयं गल्त मार्ग का अनुसारण नही करे! बाकियो को उनकी इच्छानुसार चलने दे।जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीव अपने कर्मानुसार फल भोगता है जो हम करेगे वह हम भोगेगे और दूसरे अपने। बच्चे विवाह बंधन से पूर्व स्पष्ट बता दे कि हम जैन, देव-शास्त्र-गुरू के अतिरिक्त अन्य किसी देवी देवता की पूजा नही करेगे।यदि दोनो पक्षो को स्वीकार्य हो तो ही पाणिग्रहण करे अन्यथा नही।अन्य मतियो के देवी-देवताओ की पूजा कर अपने असंख्यात भवो को क्यो नष्ट करे।
अनेको जैन मंदिरो मे अन्य मतियो की प्रतिमाये भी है ऐसी परिस्थितियो मे क्या हमे उनकी पूजा, वंदना करनी चाहिए?
हम पूजा,वंदना,आरती जैन शासन के नवदेवता के अतिरिक्त किसी की नही करेगे।अन्य देवी-देवता को वेदी मे नही रखे।यदि पहले से रखे हो तो वहा से हटाकर किसी अन्य स्थान पर विराजमान कर दे।
अपने मंदिरो मे रखी अन्य देवी-देवताओ की विदुर रूप मूर्ति को भी नही देखना है।अन्य देवी-देवता को मात्र जयजिनेन्द्र सधर्मी होने के कारण कर सकते है।आरती,पूजा, अभिषेक,अर्घ आदि कुछ नही चढ़ाना चाहिए।
अन्य देवी देवताओं को लोग ३ कारणो से पूजते है।
1. इनकी पूजा करने से मोक्ष मिल जायेगा।
समाधान-जिन्हे मोक्ष नही मिला वे दूसरो को कैसे मोक्ष दिलवा सकते है?
2. कुछ लोग संसारिक सुखो की वांछा से पूजते है। समाधान -सुख पुन्य कर्मो के उदय के बिना नही मिल सकता।
3. कुछ लोग परलोक मे सुखो की वांछा से पूजते है। समाधान-मिथ्यात्व मे लगे रहने से परलोक मे सुख कैसे मिलेगा? इसलिए अन्य मति के देवी-देवताओ को पूजना हितकारी नही है।
व्यापारी अपनी दुकान खोलते समय सीढ़ीयो को नमस्कार करते है, अथवा तिजोरी पूजते है या अगरबत्ती जलाते,बांट-तराजू की वंदना करते है क्या से उचित है?
ये सभी पुद्गल ही है इनकी अर्चना करना कैसे ठीक हो सकती है?यह मिथ्यात्वहै ,सात तत्वो का श्रद्धान भी नही है। देहली सिर पर,मंदिर की लगानी है क्योकि वह चैतयालय भी देवता है।
जैन मत के अनुसरणीय देवी देवता को पूजने में आपत्ति –
शास्त्रों में आचार्यो ने जैन मत के माननीय देवी देवता; भवन्त्रिक, भवनवासी, व्यंतर, जन्म से मिथ्यादृष्टि कुदेव, राग-द्वेष में लिप्त बताया है। इसलिए नहीं पूजते! यदि देवों में पूजना है तो एक भवतारी लौकान्तिकदेव, सर्वार्थसिद्धि के देव, सौधार्मेंद्र आदि देवों को पूजना चाहिए, जिन्होंने अगले भव में नियम से मोक्ष जाना है। हमें वीतरागी, हितोपदेशी और सर्वज्ञ देव की ही पूजा करनी है।
जैन शास्त्रों में नवरात्रि पर्व का वर्णन नहीं मिलता, नीतिसंगत नहीं है, इसलिए इन्हें मनाना नहीं चाहिए। इन्हें मनाकर हम,इन्हें जैन धर्म में क्यों प्रविष्ट करा रहे है? इनके अनुष्ठानों को नहीं मनाना चाहिए। जो आचार्य/मुनि नवरात्रों या अन्य पर्वों में बढ़ चढ़ कर भाग ले रहे है, उनके देखने की चीज़ है,किन्तु आगम सम्मत नहीं है अत: हमें इनसे दूर रहना चाहिए।जैनियों के पर्व;दसलक्षण धर्म, अष्टाह्निका(प्रत्येक वर्ष में ३ बार), अष्टमी, चतुर्दशी, (प्रत्येक माह में दो बार) है। इन पर्वों को धूमधाम से मनाना चाहिए। इसके अतिरिक्त तीर्थंकरों के कल्याणक, दीपावली, रक्षाबंधन, शासन जयंती, अक्षयत्रित्या आदि तत्कालिक पर्व है उन्हें मनाना चाहिए।
कालसर्प योग विधान का क्या महत्त्व है और मुनिराज क्यों करवा रहे है?
जब सारे गृह राहू और केतु के बीच आ जाते है तो इसे काल सर्प योग कहते है। कालसर्प योग का विधान,मात्र अर्थार्जन के उद्देश्य से,करवाने वाले की हैसियत देखकर,करवाया जाता है। इसके विधान में ११००० रूपये से ११ लाख रूपये तक खर्च होते है! आगम में इस विधान का रंचमात्र भी वर्णन नहीं है।
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