पर्व अर्थात् जोड़, अवसर, संधि या किसी से जुड़ना, आत्मा को पतित से पावन बनाने का जो अवसर है उसका ही नाम है पर्व। क्योंकि लोक में यही देखा जाता है कि जब भी कहीं पर्व की बात आती है तो यही कहा जाता है कि पर्व अर्थात् नये-नये वस्त्र-आभूषण पहनना, घर-मकान, पिकनिक-पार्टी आदि अनेक प्रकार से मनोरंजन करना, मन को आह्लादित करना इसका ही नाम पर्व है, लेकिन वास्तिवकता में मनोरंजन का नाम पर्व नहीं है अपितु आत्मरंजन जहां हो, जहां निजात्मा को निज आत्मा से जोड़ा जाय उसे ही पर्व कहते हैं। पर्व भी नैमित्तिक और शाश्वत के भेद से दो प्रकार के होते हैं। नैमित्तिक-जो किसी कारण के साथ, किसी घटना से जुड़ा हो उसे नैमित्तिक पर्व कहते हैं। जैसे- रक्षाबंधन, दीपावली, अक्षय तृतीया आदि। शाश्वत पर्व अर्थात् जो त्रैकालिक है, जो कि किसी व्यक्ति विशेष या किसी घटना से सम्बंधित न होकर, जो मात्र आध्यात्मिक भावों से जुडे़ होते हैं, जैसे-आष्टान्हिका पर्व, सोलहकारण पर्व, दसलक्षण पर्व, जो कि त्रैकालिक हैं।
उन्हीं शाश्वत पर्व की श्रेणी में आता है यह दशलक्षण पर्व, जो कि प्रत्येक वर्ष में माघ, चैत्र और भाद्रपद को मनाना चाहिये, लेकिन यह दशलक्षण पर्व मुख्यता, पूर्ण उत्साह, उल्लास के साथ भाद्रपद माह में ही मनाया जाता है क्योंकि प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। काल परिवर्तन के समय अर्थात् उसर्पिणी से अवसर्पिणी और अवसर्पिणी से उत्सर्पिणी में 49 दिनों तक कुवृष्टि, सुवृष्टि होती है, उसमें जो सुवृष्टि का काल है श्रावण कृष्णा 1 से भाद्रपद शुक्ला 4 तक चतला है और भाद्रपद शुक्ला पंचमी से सृष्टि के सृजन का कार्य प्रारंभ होता है, इसलिए इसे पर्व के रूप में मनाते हैं। अतः भाद्र माह को पर्वों का राजा भी कहते हैं। आत्मा के जो उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्राचर्य ये दशधर्म कहे गये हैं। यही आत्मा का वास्तविक स्वभाव है।
‘वत्थु सहावो धम्मो’ वस्तु का जो स्वभाव है , वही धर्म है और धर्म से जुड़ने का नाम ही पर्व है। दस धर्म रूप आत्मा के स्वरूप को जहां प्राप्ति होती है उसे ही दशलक्षण पर्व कहते हैं। किसी ने देह शोषण को धर्म माना है तो किसी ने देह के पोषण को धर्म माना है परन्तु जैनदर्शन कहता है कि जहां आत्मा का पोषण हो और कषायों का शोषण हो उसका नाम धर्म है और वह धर्म ही वस्तु स्वभाव रूप कहा गया है। जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता, जल का स्वभाव शीतलता है वैसे ही आत्मा का स्वभाव, आत्मा का धर्म ज्ञान-दर्शन है और उस आत्मा धर्म की प्राप्ति, रत्नत्रय, दया, उत्तम क्षमादि दस धर्मों के अभाव में संभव नहीं है जैसे उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्राचर्य इन दस धर्मों की प्राप्ति को आत्मा का स्वभाव कहा है वैसे रत्नत्रय की प्राप्ति, जीवों के प्रति दया, करूणा को भी आत्मा का धर्म कहा गया है। उस आत्म धर्म की प्राप्ति भी आत्म के इन दसलक्षणों से ही संभव है। दशलक्षण पर्व को पर्यूषण पर्व भी कहा जाता है ‘‘परि आसमन्तात् उष्यन्ते दह्रान्ते पापकर्माणि यस्मिन् तत् पर्यूषणम्’’ अर्थात् जो चारों ओर से आत्मा में लगे पाप कर्मों को तपाये, जलाये उसे ही पर्यूषण कहते हैं। क्रोधादि काषायिक भावों का उपशमन कर अपनी आत्मा में ही लीन रहना ही ही पर्यूषण की सार्थकता है। कषाय, आत्मा के लिए सबसे बड़ा दूषण है, जो दूषण को दूर करे उसका ही ही नाम पर्यूषण है, प्रदूषण से रहित परिणामों का नाम पर्यूषण है। लोक में प्रदूषण को देखकर व्यक्ति शासन-प्रशासन में शिकायत करता है कि प्रदूषण बढ़ रहा है, निजात्मा के शासन को कब को कब शिकायत करोगे कि मेरी कषायों का प्रदूषण बढ़ रहा है। बाहर का प्रदूषण तो मात्र तन को रोगी बना सकता है, आपका असमय में मरण करा सकता है लेकिन जो भीतर में काषायिक भावों का प्रदूषण है वह प्रतिपल मेरी सिद्धत्व अवस्था को दूषित कर रहा है। इस पर्वराज पर्यूषण में अपनी आत्मा से उन काषायिक भावों को दूरकर शिवत्व की प्राप्ति का उद्यम करना ही पर्यूषण की सार्थकता है।
उत्तम क्षमादि को क्रमशः संक्षिप्त में जानते हैं :-
उत्तम क्षमा : ‘‘कालुष्यतानुत्पत्ति क्षमाः‘‘ कालुष्यता की अनुपस्थिति का नाम क्षमा है और कालुष्यता की उत्पत्ति का नाम क्रोध है। कषाय की उत्पत्ति होती है, क्रोध आता है, जैसे हमारे घर में कोई अतिथि आता है और कुछ समय के बाद चला जाता है वह कभी अपना नहीं होता क्योंकि जो अपना होता है वह कभी आता नहीं है, वह तो अपना होता ही है उसको प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती। क्षमा तो मेरा स्वभाव है। कषाय के उदय में जीव हेयोपादेय के विवेक से शून्य हो जाता है, क्षणमात्र की कषाय, क्षण मात्र का क्रोध अनेकानेक पर्यायों की दुर्गति का कारण बन जाता है, छोटी सी क्रोध की चिंगारी जीवनभर की कमाई, सम्पूर्ण परिवार को, समाज को नष्टकर देती है लेकिन जिसने उस क्रोध रूपी चिंगारी पर क्षमा रूपी जल को डालकर शांत कर दिया उसके ही जीवन का कल्याण संभव है। आचार्यों ने मात्र क्षमा को धर्म नहीं कहा अपितु उत्तम क्षमा को धर्म कहा है। ‘धन्ना ते भगवंता’ वे धरती के देवता धन्य हैं जिन्होंने उस उत्तमक्षमा को धारण कर लिया फिर चाहे कोई तन को आग लगाये, चाहे जलती सिगड़ी सिर पर रखकर उपर से कीले ही क्यों न ठोके, वे तो अपने उस क्षमा रूप आत्मा स्वभाव में प्रतिक्षण ही लीन रहते हैं और ऐसे उत्तम क्षमा के धारी उन निर्ग्रंथों के ही वह उत्तम क्षमा धर्म है।
उत्तम मार्दव : बहुत सहज भाव से समझना कि मार्दव का व्याख्यान मनुष्यों के सामने करना बहुत ही कठिन है। जन्म से नारकी को कोई सामग्री मिलती है तो उसका नाम है ‘क्रेध’, तिर्यंचों की कोई कषाय है तो वह है माया, देवों में लोभ कषाय की मुख्यता होती है और अहो ज्ञानी! मनुष्यों के पास प्रबल कोई वस्तु है तो उसका नाम हे मान कषाय। हमें आज तक मार्दव धर्म की प्राप्ति क्यों नहीं हुयी, क्योंकि हमने मानना नहीं सीखा, ‘मान जाय तो मान जाय’ हम दूसरों की बात मान जाये ंतो हमारा मान जाय। बड़ा आदमी बनना अच्छी बात है पर अच्छा आदमी बनना बहुत बड़ी बात है और जिसके पास उत्तम मार्दव धर्म है वही अच्छा आदमी है।
उत्तम आर्जव : ‘चेहरे को रंग देना कर्मों का काम है, पर जीवन को सही ढंग देना मेरा काम है’ और अपने जीवन को सही ढंग वही दे सकता है जिसका जीवन ऋजुता से परिपूर्ण है, मायाचारी से दूर है क्योंकि जिसके मन में कुछ, वचन में कुछ और काय की परिणति कुछ और ही चल रही है, इसी का नाम मायाचारी है। जहां-जहां मायाचारी है वहां आर्जव धर्म की सुगंध भी संभव नहीं है। सरल बनो, सहज बनो तभी आत्मा का कल्याण संभव है क्योंकि टूटी कलम और औरों से जलन, खुद का भाग्य नहीं लिखने देती।
उत्तम शौच : ‘काम में आलस औद दान की लालच हमें अच्छा नहीं बनने देती’ क्योंकि लालच करना अच्छा नहीं है, चाहे वह लालच धन हो, चाहे वह ज्ञान हो, धर्म की हो, चाहे ध्यान की भी क्यों न हो, जहां-जहां लोभ है, लालच है वहां -वहां संक्लेशता है, दुख है, अशुचिता है। ह्रद्रय में शुचिता, परिणामों में विशुद्धि और सुख की अनुभूति लोभ के सद्भाव में असंभव ही है क्योंकि लोभ, भलो नहीं है। उत्तम शौच धर्म यर्थाथ में उन रत्नत्रयधारी निर्ग्रंथ के ही संभव है क्योंकि कहा भी है कि यह शरीर तो अशुचि ही है लेकिन रत्नत्रय की साधना से यह अशुद्ध शरीर भी शुद्ध हो जाता है।
उत्तम सत्य : जिसने अपने जीवन में मात्र चर्चा के सत्य को नहीं अपितु चर्या के सत्य को जिसने अपने जीवन मं उतार लिया उसके ह्रद्रय में ही वह सत्यधर्म आ सकता है क्योंकि जिन्होंने सत् को समझा, सत् को जाना और सत् पर चलना प्रारंभ किया उसी का नाम संत है, उसी का नाम निर्ग्रंथ है। लेकिन हमने आज तक न तो सत् को जाना, न हि पथ पहचाना। हमने तो सत् को-पथ को छोड़कर अपना नया पंथ चलाना प्रारंभ कर दिया। पंथ चलाना धर्म नहीं है अपितु सत् को पहचानकर उस सत् की प्राप्ति के पथ पर चलने का नाम संत है और ऐसे संत के वह उत्तम सत्य धर्म है।
उत्तम संयम : वंदन को प्राप्त करना तो बंधन में बंधकर , अपने जीवन को संयमित करने की आवश्यकता है, वंदनीय वही हो सकता है जिसने अपने जीवन को संयम की रस्सी से बांध लिया है, स्वच्छंदी कभी वंदनीय नहीं हो सकता। धर्म को मर्यादित करने की आवश्यकता नहीं अपितु धर्म से अपने जीवन को मर्यादित करने की आवश्यकता है। जिसने अपने मन को अपनी इन्द्रियों को दमन करके, विषय-कषायों का वमन कर दिया, उसको सभी नमन करते हैं, ऐसा उत्तम संयमधर्म का महत्व है।
उत्तम तप : ‘ तन मिला तप करो, तप ही सांचा होय, तप किये बिना तेरा, साचा सांचा न होय।।’
पंचमकाल की तपन और संसार सागर के पतन का एकमात्र कारण आजतक यही रहा कि हमने आज तक सम्यक् तप नहीं किया क्योंकि आत्मा को पंचमकाल की तपन और भव सागर के पतन से बचाने वाला उत्तम तप ही है। खदान का सोना तभी खरा हो सकता है जब वह तपता है ऐसे ही यह संसारी आत्मा बारह प्रकार के तपों को संयम के साथ तपता है तभी वह भगवत्ता को प्राप्त कर सकता है। जब तक हमारी कषायों की राख नहीं होगी तब तक हमें भगवत्ता रूपी खरा सोना प्राप्त होनो वाला नहीं है, इसलिए ‘तपो तो, पर जलो नहीं’ क्योंकि उत्तम तप तपने से आत्मा में लगे कर्मों की राख होगी और दूसरों से जलने से तुम्हारी पर्याय की खाक होगी।
उत्तम त्याग : देना उदारता है पद दिया हुआ भूल जाना महानता है। सही अर्थों में वही दान, त्याग का नाम दान है छोड़ने का नाम दान नहीं है। आगम में चार प्रकार के दानों की व्याख्या पूर्वाचार्यों ने की है अन्य नहीं, अन्यथा नहीं। जिसने त्याग का ही त्याग कर दिया उसे ही उत्तम त्याग कहा है नही ंतो हमने त्याग-दान तो कर दिया पर मन में यदि ऐसा विकल्प चल रहा है कि मैने इतना दान, इतना त्याग किया तो वह तो दुर्गति का ही कारण है क्योंकि कहा भी है कि ‘जो दान नाम को देते हैं वे मर हाथी होते हैं…’ जैसे उपजाउ भूमि में थोड़ा सा पानी भी अधिक लाभकारी होता है वैसे ही थोड़ा सा उत्तम त्याग संसार से मुक्ति दिलाता है क्योंकि दान खर्च नहीं दान मोक्ष का बीज है।
उत्तम आकिंचन्य : भीड़ में भी एकत्व के अहसास का नाम है आकिंचन्य धर्म। जहां ममत्व है वहां नियम से संसार है और जहां संसार है वहां दुख है। संसार के दुःख से छूटने का एकमात्र साधन है, एक मात्र कारण है आकिंचन्य धर्म। आकिंचन्य धर्म परिग्रह के सद्भाव में संभव नहीं है। जिसने अंतरंग-बहिरंग परिग्रह का त्याग करके निर्ग्रंथ अवस्था को प्राप्त कर लिया उसके ही उत्तम आकिंचन्य धर्म हो सकता है। प्रकृति को समझने -आकृति को, विकृति को छोड़ने का नाम है आकिंचन्य। ‘सब कुछ होके, सब कुछ त्यागे वो बिना विषाद’ संक्लेशता रहित होकर निर्विकार स्वरूपता की प्राप्ति उत्तम आकिंचन्य से ही होगी।
उत्तम ब्रह्राचर्य : ब्रह्रा स्वरूप आत्मा में आत्मा की लीनता का नाम है उत्तम ब्रह्राचर्य धर्म। शीत है तो शिव है अन्यथा शव है। पशुवृत्ति के त्याग का नाम ब्रह्राचर्य नहीं है, शरीर को नहीं, मन को भी ब्रह्राचर्य बनाना उत्तम ब्रह्राचर्य है। शीशी में जब तक शील लगी है तभी तक उसकी कीमत है ऐसे ही व्यक्ति के पास जब तक शील है, ब्रह्राचर्य है तभी तक वह आत्म स्वरूप को प्राप्त कर सकता है।
उत्तम क्षमा से आकिंचन तक की साधना मात्र और मात्र उत्तम ब्रह्मचर्य के लिए ही है। विकारों से बचाकर, राग से हटाकर, वीतरागता को पाना ही उत्तम ब्रह्राचर्य है। मोती की कीमत चमक से है, साधना की कीमत ब्रह्राचर्य से है। ब्रह्राचर्य अंक है, शेष तपस्या तो शून्य है। ब्रह्राचर्य के अभाव में की गयी सारी तपस्या थोथी है, क्योंकि अंक के अभाव में शून्य की कोई कीमत नहीं होती है।
आत्म जागरण के महापर्व दसलक्षण में आत्मा की उपासना की जाती है। यह एक ऐसा पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी बन सकता है। विकारों से मुक्ति का यह पर्व प्रत्येक के जीवन को मंगल करे, यही भावना है।
(परम पूज्य आचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज के परम प्रभावक संत श्रमणरत्न मुनि श्री सुप्रभसागर जी महाराज, श्रमणरत्न मुनि श्री प्रणतसागर जी महाराज का वर्ष 2020 का प्रगल्भित पावसयोग ललितपुर में चल रहा है)
— डॉ. सुनील जैन ‘संचय’, ललितपुंर