पर्युषण- दशलक्षण पर्व में अन्य पूजा पाठ अभिषेक विधान और कार्यक्रमों के अलावा एक अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण आयोजन है – प्रवचन ।
यदि शास्त्र प्रवचन न हों तो अन्य क्रियाओं का कभी महत्त्व समझ में नहीं आ सकता । अन्य सभी क्रियाओं में हम भगवान को सुनाते हैं – बस प्रवचन ही एक ऐसा माध्यम है जब हम भगवान की सुनते हैं । अन्यथा अन्य क्रियाओं में सुनाना ज्यादा होता है | पहले की अपेक्षा वास्तविक प्रवचन सुनने सुनाने की श्रृंखला कुछ छूटती सी नज़र आ रही है | पहले ही अधिकांश स्थानों पर दैनिक प्रवचन सभाओं का लोप होता जा रहा है , किसी तरह पर्व के दिनों में शास्त्र सभा का प्रचलन बचा था , आज के दौर में कितने ही स्थानों पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों की होड़ में उसकी भी उपेक्षा शुरू हो गई । मैं ऐसे कई जिनालयों से परिचित हूँ जहाँ पहले पर्व के दिनों में शास्त्र सभा में बहुत भीड़ हुआ करती थी और अब वहाँ पर्व के दिन भी सूने रहते हैं। श्रावक पर्व के दिनों में जितना आवश्यक पूजन अभिषेक मानते हैं उतना स्वाध्याय जरूरी नहीं समझते ।
प्रवचन के बदलते रूप और हमारी जिम्मेदारी –
प्रवचन ,शास्त्र विराजमान करके श्रुत परंपरा के अनुसार आप्त की वाणी को प्रकट करना है । अन्य प्रलाप जो मंचों से होते हैं वे भाषण कहलाते हैं – प्रवचन नहीं ।
अतः हम सभी की बहुत बड़ी जिम्मेदारी यह बनती है कि हम प्रवचन परंपरा को बंद न होने दें । कभी कभी यह भी देखने में आता है कि श्रोताओं की कमी का बहाना बना कर पर्व के दिनों में भी कितने ही स्थानों पर प्रवचन बंद हो गए हैं- जो अशुभ संकेत हैं । हमें कैसे भी करके किसी भी प्रकार से शास्त्र सभा बरकार रखनी चाहिए अन्यथा धर्म सिर्फ कोरे क्रियाकांड में उलझ कर रह जाएगा और उसकी मूल आत्मा मर जाएगी । उसके जिम्मेवार हम होंगे।
इसके बाद बहुत बड़ी जिम्मेदारी प्रवचनकार की भी होती है ।
प्रवचन करना ,भाषण देना ,लेख लिखना,संपादकीय लिखना,कविता लिखना एक कला है किंतु उसमें जो विषय वस्तु प्रस्तुत की जाती है वह योग्यता के आधार पर प्रस्तुत होती है ।
वर्तमान में जैन परंपरा में प्रवचन करने तथा भाषण देने वालों का एक बड़ा समुदाय बनता जा रहा है । यह एक सुखद बात है क्यों कि पहले के समय में उपदेश देने वाले बहुत दुर्लभ होते थे । इसी तरह लेखन ,पत्रकारिता ,संपादन आदि में भी समाज का एक बड़ा वर्ग कार्य कर रहा है । यह भी एक शुभ संकेत है ।
मैं बिना किसी एक का नाम लिए ,लगभग उन सभी जैन प्रवचनकारों और लेखकों को एक सलाह देना चाहता हूँ जो जैन दर्शन ,धर्म और संस्कृति विषयक प्रवचन और लेखन करते हैं । अभी कुछ समय से tv और पत्र पत्रिकाओं को देखने से ऐसा महसूस हुआ कि कई लोगों में बोलने और लिखने की बहुत अच्छी कला तो है किंतु उन्हें जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों की स्पष्ट जानकारी नहीं है । या तो उन्होंने स्वाध्याय आदि व्यवस्थित रूप से नहीं किया या सही शिक्षा प्राप्त नहीं की है या जनता को खुश करने या उनका अधिक से अधिक समर्थन प्राप्त करने के लिए वे कुछ भी कहने के लिए तैयार हैं।
कई बार प्राकृतिक रूप से बोलने की जन्मजात कला होने से वक्ता स्वयं को स्वयंभू समझने लगते हैं,चारों तरफ भीड़ और प्रशंसा सहज मिल जाने से उनके अध्ययन की प्रवृत्ति भी कमज़ोर पड़ जाती है ।
पूज्य आचार्य विद्यानंद जी महाराज शब्द साधना पर बहुत ध्यान देते और दिलवाते थे । एक बार मैंने एक बहुत प्रसिद्ध संत की प्रशंसा उनके सामने की कि उनकी सभा में हज़ारों लोग आते हैं । तब उन्होंने कहा कि भीड़ देखकर तुम वक्ता की प्रामाणिकता का निर्णय नहीं कर सकते ,भीड़ तो एक मदारी भी अपनी वाक्पटुता से एकत्रित कर लेता है । सही वक्ता युक्तिशास्त्राSविरोधिवाक् होना चाहिए अर्थात् उसकी वाणी तर्क और युक्ति के साथ साथ आगम सम्मत भी हो ।
प्रवचनों में विसंगतियां –
कुछ वाक्य मैं यहां उद्धृत कर रहा हूँ जो प्रवचनों भाषणों और ध्यान की कक्षाओं में आ रहे हैं और कई पूज्य जनों के द्वारा भी उच्चारित हो रहे हैं अतः उनमें तत्काल संशोधन की आवश्यकता है –
1. हमें जो परमात्मा ने दिया है हम उसमें संतोष करें ।
2. भगवान जो करते हैं वो अच्छे के लिए करते हैं ।
3. यदि बुरा किया तो भगवान सज़ा देंगे ।
4. परमपिता परमात्मा से डरो ।भगवान तुम्हें छोड़ेंगे नहीं ।
5. भगवान सब ठीक करेंगे ।आदि वाक्य बोलना ।
6. स्वास्थ्य संबंधी हिदायतें देते समय जमीकंद आदि अभक्ष्य पदार्थों की प्रेरणा दे देना ।
7. यदि तुमने दान नहीं दिया तो सब खत्म हो जाएगा ।इस तरह के वाक्य बोलकर डराना ।
8. प्रथमानुयोग के दृष्टांत के स्थान पर अन्य परंपरा के कथानक की भरमार ।
9. प्रवचनों में सास बहू के किस्सों की भरमार ।
10. तत्त्वबोध,स्वाध्याय तप की प्रेरणा न देकर मात्र बाह्य क्रियाओं से दुख निवृत्ति के उपाय बताना ।
11. तीर्थ तो विषय भोगों से निवृत्ति की प्रेरणा के निमित्त होते हैं किन्तु उसकी जगह उन्हें सांसारिक कामना पूर्ति का निमित्त बनाने वाले वाक्य बोलकर दान को प्रेरित करना ।
12. अपने निजी कथानक,परिवार की बातें ज्यादा सुनाना । हर समय अपनी स्वयं की प्रशंसा करना । जिनवाणी के प्रचार से ज्यादा स्वयं का प्रचार करना ।
आदि आदि …..
मैं विनम्रता पूर्वक निवेदन करना चाहता हूं कि ये उपदेश रोचक और प्रेरक होते हुए भी गृहीत मिथ्यात्व के पोषक हैं । जैन दर्शन के सभी आचार्य जब एक सिरे से ईश्वर कर्तृत्व का खंडन करते हैं और यह समझाते हैं कि एक द्रव्य भी दूसरे द्रव्य का कर्ता धर्ता नहीं है तब इस तरह के सिद्धांत विरोधी वाक्यों का प्रयोग और प्रवचन उपदेश करना उचित नहीं लगता है ।
भाषा में शालीनता का अभाव –
इसी प्रकार एक और बहुत बड़ा दोष यह देखने में आ रहा है कि महंत पना प्राप्त होते ही वक़्ता अन्य उम्र में बड़े लोगों के प्रति एक वचन में संबोधन देने लग जाते हैं ।
मैंने एक नई उम्र के मुनिराज को एक वरिष्ठ आर्यिका माता जी के प्रति इस तरह के वचन सुने जैसे वे कोई अबोध छोटी बालिका हों । ‘ वो यहां आयी थी , वो ऐसा बोल रही थी …आदि । इसी प्रकार कई विद्वान भी बड़े मुनिराजों और आचार्यों के प्रति, यदि वे उनसे उपकृत नहीं हैं या उनके समर्थक नहीं हैं तो ‘वो ऐसा कहता है , (बिना ‘जी’ भी लगाए) उनका नाम लेकर एक वचन में उन्हें संबोधन दे देते हैं ।
कई बड़े बड़े विद्वान तक प्राचीन आचार्यों के नाम भी बिना किसी गरिमा के उच्चारित करते हैं जैसे – ‘आचार्य कुन्दकुन्द मानते थे’…..की जगह ‘कुन्दकुन्द मानते थे’ – ऐसा बेधड़क बोलते हैं ।
उनकी देखादेखी नई उम्र के विद्वान भी इसी शैली में बोलने लग जाते हैं ।
मैंने देखा है कि जब हम किसी को आदर्श बनाते हैं तो उनकी अच्छाइयों को ग्रहण करने से पहले उनकी कमियों को आत्मसात कर लेते हैं ।
जैसे कोई वरिष्ठ प्रसिद्ध वक्ता श्रोताओं से ‘ तू संसार में कब तक भटकता रहेगा ‘ आदि तू / तुम वाले वाक्य बोल देते हैं और श्रोताओं की अपेक्षा उम्र और ज्ञान में वरिष्ठता होने से उनका कथन चल भी जाता है ,किसी को बुरा नहीं लगता किन्तु इस तरह के वाक्य सुनकर पंद्रह – बीस साल के युवा विद्वान भी उम्रदराज श्रोताओं से इसी भाषा में कथन करने लगते हैं – तब अशिष्टाचार लगता है ।
अतः सभी प्रवचनकारों को यह विवेक अवश्य रखना चाहिए कि
प्रोटोकाल एक अलग चीज है और सामान्य शिष्टाचार एक अलग बात है और साधु ,साध्वियों,ब्रह्मचारियों,त्यागी व्रतियों, विद्वानों और श्रोताओं के प्रति ‘आप’ शब्द ही शोभा देता है चाहे वे पद या उम्र में आपसे छोटे हों या बड़े । आप पद में बड़े हैं तब भी यदि अन्य विद्वान् श्रावक आदि को आप कहकर संबोधित करते हैं तो आपका बड़ापन ही झलकता है और प्रभाव भी अच्छा होता है ।
जिनसे बचाना है उसी की प्रेरणा –
गरीबी दूर करने , रोग दूर करने , ग्रह शान्ति के उद्देश्य से तथा अन्य लौकिक कामनाओं के निमित्त से भगवान की उपासना , अभिषेक आदि का उपदेश और प्रेरणा देना भी सही दिशा नहीं है ।आत्मकल्याण की पवित्र भावना से निकांक्षित होकर भक्ति ,उपासना,अभिषेक आदि क्रियाएं करना ही जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बताया गया मार्ग है |
भीड़ और दान के लिए एक प्रकार से जिनधर्म को बहुत हल्का बनाया जा रहा है और उसकी मूल भावना की उपेक्षा की जा रही है ।यह कब तक चलेगा ?चाहे किसी भी कुतर्क के सहारे तात्कालिक लाभ के लिए इस तरह की परम्पराओं को हम प्रश्रय दे रहे हैं ,किन्तु इसका क्या दूरगामी प्रभाव होगा और क्या हश्र होगा ऐसा भी विचार करना चाहिए |
शुद्ध उच्चारण की समस्या –
कई बार बड़े से बड़े वक्ता ,भले ही वे बहुत प्रसिद्ध हों …उच्चारण आदि दोष बहुत करते हैं । इसके लिए क्षेत्र विशेष की प्रवृत्ति का बहाना भी बनाते है ।मगर जिन्हें सुधारा जा सकता है ,उसे भी सुधारते नहीं हैं । जैसे अधिकांश प्रवचनकार ‘स’ का ‘श’ उच्चारण करते हैं । ‘समाज’ की जगह ‘शमाज’ बोलते हैं । महंतपने के कारण भक्त तो कुछ नहीं बोलते किन्तु जब ये प्रवचन चैनलों पर आते हैं तो अन्य समाज के लोग मजाक भी उड़ाते हैं । कई लोग ‘द्य’ को ‘ध’ उच्चारण करते हैं । विद्यालय को विधालय और ‘विद्वत समाज’ को ‘विद्युत शमाज’ ,आचार्य विद्यासागर जी को भी ‘विध्यासागर’ उच्चारण करते हैं ।
कुछ न कुछ कमजोरी तो प्रत्येक वक्ता में होती है लेकिन सामान्यतः वे कमियां जिन्हें दूर किया जा सकता है वे तो दूर कर ही लेनी चाहिए किन्तु इसके लिए भी दृढ़ इच्छा शक्ति और खुद को सामान्य मनुष्य समझने वाली शक्ति चाहिए ।
वर्तमान की सावधानी –
आज का युग संचार का युग है । बच्चे बच्चे के पास वीडियो ऑडियो रिकॉर्ड करने और उसे फैलाने के साधन हैं । इसलिए प्रवचनों में नेता,मंत्री आदि को ललकारना , विपरीत मत वालों के लिए अपशब्द कहना , अपनी समाज की किसी गोपनीयता को उद्घाटित करना आदि प्रवृत्तियां बहुत घातक सिद्ध हो सकती हैं । स्वयं के लिए भी और समाज तीर्थ के लिए भी । ऐसे समय में जब सब कुछ पूरे विश्व में लाइव चल रहा हो तब अपनी वाणी पर संयम रखते हुए वे ही शब्द और वाक्य बोलने चाहिए जो हर देश काल परिस्थिति में सुना जाने पर अच्छा लगे और प्रेरणादायक हो ।
एक यथार्थ तथ्य –
जनता तो वक्ता को भगवान मानती ही है किंतु यदि वक्ता भी स्वयं को भगवान मानने की भूल कर बैठे तो संशोधन की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं । इसके लिए अपने पास किसी समझदार विद्वान् मित्र (जो चाटुकार न हो ) को सलाहकार के रूप में रखना चाहिए और उसे अभय प्रदान कर उससे अकेले में अपनी कमियां जानकर उसे दूर कर लेना चाहिए । कई बार विद्वान् भी कई कमियों को नाराजगी के भय से नहीं बता पाते हैं ।
आपस में बोलते समय यदि कोई गलती होती है तो वो चल भी सकती है लेकिन जब आप मंच पर बोलते हैं तो जिम्मेदारी भी बड़ी हो जाती है ।
विवेक ज्यादा बड़ा है –
कई बार सच बोलने के साहस के अभिमान में भी वक्ता शिष्टाचार को दरकिनार कर देते हैं । बहुत पहले मैंने एक लेख में लिखा था कि सच बोलने का साहस तो फिर भी वक्ता कर लेता है किंतु यदि साथ में सच बोलने का सलीका न हो तो वह सच झूठ बोलने से भी ज्यादा खतरनाक हो जाता है । इसलिए सच बोलने का साहस और सलीका दोनों होना अत्यावश्यक है । मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि यदि सलीका न आता हो तो सच बोलने से भी परहेज़ किया जाय तो बेहतर है ।
एक नवजात बच्चा बोलना तो 2 से 3 साल में सीख जाता है ,लेकिन क्या बोलना ,कैसे बोलना ,कब बोलना ,क्यों बोलना आदि सीखने में पूरा जीवन लग जाता है। बोलते समय यह बात मायने नहीं रखती कि आप कितनी क्लास पढ़े हैं बल्कि जब आप बोलते हैं तो यह तय हो जाता है कि आप किस क्लास के हैं । आपसे कोई यह कहे न कहे पर समझ सब जाते हैं ।
आशा है इस समीक्षा को सकारात्मक रूप से लेकर उचित संशोधन अवश्य किये जायेंगे । अपने लिए भी और धर्म के लिए भी ।
— प्रो.डॉ.अनेकान्त कुमार जैन