तीर्थंकर पार्श्वनाथ समग्र सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता हैं। जो काम महात्मा गांधी ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अहिंसा को लेाकजीवन से जोड़ कर किया, वही काम हजारों वर्ष पूर्व भगवान पाश्र्वनाथ ने अहिंसा की व्याप्ति को व्यक्ति तक विस्तृत कर सामाजिक जीवन में प्रवेश दे कर दिया। यह एक अभूतपूर्व क्रान्ति थी, जिसने युग की काया ही पलट दी। भगवान पार्श्वनाथ की जीवन-घटनाओं में हमें राज्य और व्यक्ति, समाज और व्यक्ति तथा व्यक्ति और व्यक्ति के बीच के संबंधों के निर्धारण के रचनात्मक सूत्र भी मिलते हैं। इन सूत्रों की प्रासंगिकता आज भी यथावत है।
जैनधर्म के तेईसवें तीर्थंकरपार्श्वनाथ का व्यक्तित्व अत्यंत विशाल एवं प्रभावक था। उनके सिद्धांत सर्वथा व्यावहारिक थे। अपने उपदेशों में उन्होंने अहिंसा सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह पर अधिक बल दिया था। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में अहिंसा का प्रचार-प्रसार किया। इतिहासकारों ने उनके धर्म के संबंध में लिखा है कि इतने प्राचीनकाल में अहिंसा को सुव्यवस्थित रूप देने की कला भगवान् पार्श्वनाथ में थी।
भगवान पार्श्वनाथ का जन्म बनारस के राजा अश्वसेन और रानी वामादेवी के यहां पौष कृष्ण एकादशी के दिन हुआ था। पार्श्वनाथ ने विवाह नहीं किया था। तीस वर्ष की अवस्था में एक दिन राजसभा में वे अयोध्या नरेश जयसेन के दूत से ‘ऋषभदेव चरित’ सुन रहे थे। सुनते ही उन्हें वैराग्य हो गया। तब अश्ववन में जाकर उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की। तीन माह तक कठोर तप किया। दिगम्बर रहना, पैदल चलना, एकबार विधिपूर्वक भोजन और जल ग्रहण करना, यत्र-तत्र विहार करके जीवों को धर्मोपदेश देना, रात्रि में मौन रहना आदि जैसी उनकी कठिन दिनचर्या थी।
उन्होंने पौष कृष्ण की 11वीं तिथि को दीक्षा ली और श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन सम्मेदशिखरजी पर्वत पर मोक्ष प्राप्त कर लिया। वर्तमान में सम्मेदशिखरजी झारखंड प्रांत में स्थित है। यह स्थान जैन समुदाय का प्रमुख तीर्थस्थान है। जिस पर्वत पर पार्श्वनाथ को निर्वाण प्राप्त हुआ वह पारसनाथ पर्वत के नाम से जाना जाता है। लाखों श्रद्धालु यहां दर्शनार्थ आते हैं।
तीर्थकर पार्श्वनाथ क्षमा के प्रतीक हैं। उनके समय में तापस-परंपरा का प्रचलन था। तप के नाम पर लोग अज्ञानतापूर्वक कष्ट उठा रहे थे। उन्होंने व्यावहारिक तप पर जोर दिया। पाश्र्वनाथ ने चार्तुयाम धर्म प्रतिपादित किया। इसके अनुसार चार प्रकार के पापों से विरक्त होना ही धर्म है। चार पाप हैं-हिंसा, असत्य, चोरी और धन का संग्रह। यह आत्मसाधना का पवित्र मार्ग है। उन्होंने अपने उपदेशों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह पर अधिक बल दिया। उनके सिद्धांत व्यावहारिक थे, इसलिए उनके व्यक्तित्व और उपदेशों का प्रभाव जनमानस पर पड़ा। आज भी बंगाल, बिहार, झाारखंड और उड़ीसा में फैले हुए लाखों सराकों, बंगाल के मेदिनीपुर जिले के सदगोवा ओर उडीसा के रंगिया जाति के लोग पाश्र्वनाथ को अपना कुल देवता मानते हैं। पार्श्वनाथ के सिद्धांत और संस्कार इनके जीवन में गहरी जडें जमा चुके हैं। इसके अलावा सम्मेदशिखर के निकट रहने वाली भील जाति पार्श्वनाथ की अनन्य भक्त है।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ की भक्ति में अनेक स्तोत्र का आचार्यों ने सृजन किया है, जैसे- श्रीपुर पाश्र्वनाथ स्तोत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र, इन्द्रनंदि कृत पार्श्वनाथ स्तोत्र, राजसेनकृत पाश्र्वनाथाष्टक, पद्मप्रभमलधारीदेव कृत पाश्र्वनाथ स्तोत्र, विद्यानंदिकृत पाश्र्वनाथ स्तोत्र आदि। स्तोत्र रचना आराध्यदेव के प्रति बहुमान प्रदर्शन एवं आराध्य के अतिशय का प्रतिफल है। अतः इन स्तोत्रों की बहुलता भगवान पार्श्वनाथ के अतिशय प्रभावकता का सूचक है। भारतीय संस्कृति की प्रमुख धारा श्रमण परम्परा में भगवान पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक एवं गौरवशाली महत्व रहा है। भगवान पार्श्वनाथ हमारी अविच्छिन्न तीर्थंकर परम्परा के दिव्य आभावान योगी ऐतिहासिक पुरूष हैं। सर्वप्रथम डाॅ. हर्मन याकोबी ने ‘स्टडीज इन जैनिज्म’ के माध्यम से उन्हें ऐतिहासिक पुरूष माना।
‘‘पार्श्वयुग में अब तक जो जीवन-मूल्य व्यक्ति-जीवन से संबद्ध थे, उनका समाजीकरण हुआ और एक नूतन आध्यात्मिक समाजवाद का सूत्रपात हुआ। जो काम महात्मा गांधी ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अहिंसा को लेाकजीवन से जोड़ कर किया, वही काम हजारों वर्ष पूर्व भगवान पार्श्वनाथ ने अहिंसा की व्याप्ति को व्यक्ति तक विस्तृत कर सामाजिक जीवन में प्रवेश दे कर दिया। यह एक अभूतपूर्व क्रान्ति थी, जिसने युग की काया ही पलट दी।
भगवान पार्श्वनाथ की जीवन-घटनाओं में हमें राज्य और व्यक्ति, समाज और व्यक्ति तथा व्यक्ति और व्यक्ति के बीच के संबंधों के निर्धारण के रचनात्मक सूत्र भी मिलते हैं। इन सूत्रों की प्रासंगिकता आज भी यथापूर्व है। हिंसा और अहिंसा का द्वन्द भी हमें इन घटनाओं में अभिगुम्फित दिखाई देता है। ध्यान से देखने पर भगवान पार्श्वनाथ तथा भगवान महावीर का समवेत् रूप एक सार्वभौम धर्म के प्रवर्तन का सुदृढ़ सरंजाम है।’
तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा उनके लोकव्यापी चिंतन ने लम्बे समय तक धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र को प्रभावित किया। उनका धर्म व्यवहार की दृष्टि से सहज था, जिसमें जीवन शैली का प्रतिपादन था। राजकुमार अवस्था में कमठ द्वारा काशी के गंगाघाट पर पंचाग्नि तप तथा यज्ञाग्नि की लकड़ी में जलते नाग-नागिनी का णमोकार मंत्र द्वार उद्धार कार्य की प्रसिद्ध घटना यह सब उनके द्वारा धार्मिक क्षेत्रों में हिंसा और अज्ञान विरोध और अहिंसा तथा विवेक की स्थापना का प्रतीक है।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने मालव, अवंती, गौर्जर, महाराष्ट्, सौराष्ट्, अंग-नल, कलिंग, कर्नाटक, कोंकण, मेवाड़, द्रविड, कश्मीर, मगध, कच्छ, विदर्भ, पंचाल, पल्लव आदि आर्यखंड के देशों में विहार किया। उनकी ध्यानयोग की साधना वास्तव में आत्मसाधना थी। भय, प्रलोभन, राग-द्वेष से परे। उनका कहना था कि सताने वाले के प्रति भी सहज करूणा और कल्याण की भावना रखें।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ की भारतवर्ष में सर्वाधिक प्रतिमाएं और मंदिर हैं। उनके जन्म स्थान भेलूपुर वाराणसी में बहुत ही भव्य और विशाल दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन मंदिर बना हुआ है। यह स्थान विदेशी पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है। पाश्र्वनाथ की जयंती पर जहां वाराणसी सहित पूरे देश में जन्मोत्सव धूमधाम से श्रीजी की शोभायात्रा के साथ मनाया जाता है । पूरे देश में जन्म कल्याणक को जैन समुदाय बडे़ ही उत्साह से मनाता है। निर्वाण दिवस पर सम्मेदशिखर जी सहित पूरे देश में निर्वाण लाडू चढाकर धूमधाम से मनाते हैं, इस दिन मुकुट सप्तमी का व्रत रखकर इसे पूरे देश में जैन समुदाय द्वारा पूरी श्रद्धा और उत्साह पूर्वक मनाने की परंपरा है।जैन परंपरा में तीर्थंकर पार्श्वनाथ का अत्यधिक महत्व है।
-डाॅ. सुनील जैन ‘संचय’