धर्म, समाज, तीर्थ एवं संस्कृति को अगले 100 वर्षो तक अक्षुण्ण बनाने के उपाय


यदि हम चाहें तो हम अच्छे कार्य कर अपने कर्मों को, अशुभ कर्मों को नष्ट कर सकते हैं या परिणमन करा सकते हैं, या बुरे कार्यों द्वारा उनको और बढ़ा सकते हैं, ऐसा पूज्य मुनि श्री क्षमासागर जी के प्रवचन संग्रह “कर्म कैसे करें” में लिखा है, यही बात यहां भी घटित होती है यदि हम चाहें तो तीर्थों को, धर्म, समाज आदि को बचा सकते हैं या उन्हे नष्ट कर सकते हैं, यदि हम धर्म का संरक्षण चाहते हैं, तो अपने धर्म-स्थानों को लेकर सजग हो जाएं, यदि आपके मंदिर, संत-निवास, धर्मशाला आदि में कोई संदिग्ध व्यक्ति दिखता है, तो उसे तुरंत प्रभाव से अलग करें, एक इंच भी अतिक्रमण दिखता है तो तुरंत प्रभाव से भगाएं, कई भिखारी आदि वहां बैठते हैं, तो उन्हें वहां से दूर बैठने के लिए कहें, इससे अपनी भूमि कब्जे से दूर रहेगी।

जिनवाणी का, शास्त्रों का इतना प्रकाशन करें कि प्रत्येक नगर में मुख्य शास्त्र, मुख्य जिनवाणी आदि पुस्तकें हों, जिससे एक समृद्ध शास्त्र भंडार बने और उन्हें संरक्षण भी प्रदान किया जाए और सुसज्जित किया जाए।

संस्कृति को बचाने के लिए अपनी धरोहर प्राचीन स्मारकों, मंदिरों एवं अन्य सभी प्राचीन धरोहरों को पुरातत्व विभाग में जाने से बचाना, अपनी संस्कृति श्रेष्ठ संस्कृति है, और जब अपने पास हीरा, सोना-चांदी सब हो, तो कोयले के पीछे नहीं भागते, यहां तात्पर्य है कि अपनी महान संस्कृति को छोड़कर यदि पाश्चात्य संस्कृति को अपनायें तो कितनी मूर्खतापूर्ण बात होगी, हमारी सुसज्जित वेशभूषा वाली संस्कृति, प्रातः उठते ही भगवद-भजन करना, शाम को सोते समय भगवान का नाम स्मरण करना, दिन भर अपने कार्य को सदाचारी से करने की हमारी पद्धति, हमारी संस्कृति कितनी आदर्श संस्कृति थी, सारे देश जिसका गुणगान करते थे, “भारतेंदु हरिश्चंद्र” ने एक नाटक लिखा है जिसमें वर्णन है- भारत की दुर्दशा का एवं भारत के पूर्व वैभव का, इस नाटक का नाम “भारत-दुर्दशा” है इस प्रकार की संस्कृति को छोड़कर, तन ढंकने की संस्कृति को छोड़कर, तन-प्रदर्शन की पाश्चात्य संस्कृति को अपना रहे हैं, रिप्ड जींस को पहन रहे हैं, जींस तो पहनना ही हानिकारक है, इससे नपुंसकता आती है, ऐसा वैज्ञानिक शोध कहता है, लड़के हो या लड़कियां जैन धर्म किसी में भी भेद नहीं करता, यदि वह कहता है, सिर ढँको तो स्त्री-पुरुष दोनों से कहता है, इसलिए मंदिर में पहले पुरुष-महिला दोनों सिर ढँककर जाते थे, जो आज भी कुछ लोग मानते हैं, आज के समय भी मंदिर जी के बाहर से ही ऐसी व्यवस्था करना चाहिए, कि पुरुष टोपी लगाकर एवं महिलाओं का और बहनों का सिर चुन्नी से ढँका हो, तब ही प्रवेश मिले, जीन्स भी दोनों को ही नहीं पहनना चाहिए, SKIN TIGHT कपड़े भी नहीं पहनना चाहिए, आज की समाज केवल बहनों पर दबाव देती है जो गलत है।

सुबह उठकर सभी जय जिनेन्द्र बोलें, और प्रातः जल्दी उठकर अपने दैनिक कार्य करें।

हमारे तीर्थों को यदि शताधिक वर्षों तक अक्षुण्ण बनाना है, तो इसके लिए, समाज के ऊँचे तबके के लोगों को सर्वाधिक प्रयास करना आवश्यक है, विद्वान-मुनिराज समय-समय पर इस हेतु आवश्यक दिशा निर्देश देते रहें, यदि तीर्थ का संरक्षण करना है तो आवश्यक है कि वहां लग रही दुकानों से कोई भी जैन बंधु जो तीर्थ सुरक्षित रखना चाहते हैं, वे पर्वत पर लगी दुकानों से किसी प्रकार की वस्तुएँ ना खरीदें, हो सके तो उन दुकानों को बलात्  हटाने का भी पूर्ण प्रयास किया जाना चाहिए, जैसा कि देखते हैं अन्य धर्मों के धर्मक्षेत्रों में पुलिस बल तैनात रहता है, वैसे ही कानून के अनुसार स्वीकृति लेकर प्रत्येक क्षेत्र पर पुलिस बल तैनात किया जाना चाहिए, क्षेत्रों को

पुरातत्व विभाग के हाथ जाने से बचाना चाहिए, तीर्थों पर या मंदिरों में प्रत्येक कर्मचारी (जो कार्य जैनों के योग्य हो) जैन होना चाहिए, पर्यटन स्थल बनने से रोकना चाहिए, क्योंकि इससे क्षेत्र की शुद्धि नष्ट होती है, अतः उपरोक्त कार्यों को करने से हम अपने धर्म, समाज, संस्कृति एवं तीर्थों का संरक्षण कर सकते हैं।

 

— पं.शशांक सिंघई जैन “शास्त्री”


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