‘होली’ यानि भारतीय-जनमानस में लौकिक-संस्कृति का रंगों का त्यौहार। इस त्योहार के दो पक्ष हैं एक होलिका-दहन के रूप में और दूसरा आपस में रंग-गुलाल लगाकर मनोमालिन्य दूरकर आपसी सौहार्द बढ़ाने व मिठाइयाँ खाकर हर्षोल्लास मनाने के रूप में।
इसका पहला-पक्ष होलिका-दहन को धार्मिक-रूढि के रूप में मनाया जाता है और इसके साथ पूजा-पाठ एवं कई धार्मिक-रूढ़ियाँ जुड़ीं हुईं हैं। जबकि दूसरा पक्ष रंग-गुलाल खेलना इसका भी धार्मिकता से कोई सीधा संबंध नहीं है।
धार्मिक दृष्टि से मूलतः यह त्यौहार वैदिक-परम्परा के अनुयायियों का है। इस दिन या इस पर्व से जैनधर्म का कोई संबंध नहीं है, क्योंकि न तो इस दिन तीर्थकरों का कोई कल्याणक है, और न किसीप्रकार से किसी आचार्य-परम्परा या जैन-पौराणिक-घटनाक्रम से इसका किसीतरह का कोई संबंध है।
इस त्यौहार का जो पहला-रूप समाज में प्रचलित है, वह मात्र गृहीत-मिथ्यात्व और हिंसा का ही पोषण करता है। जैसे कि होलिका-पूजन और होलिका-दहन। अहिंसा पर आधारित जैनधर्म में होलिका-दहन के निमित्त पहले लकड़ियों का ढेर लगाकर उसे सजाना और उस पर कल्पना में या मिट्टी की होलिका की मूर्ति रखकर उसे उपलों की माला बनाकर पहले उसकी पूजा करना, उससे आशीर्वाद की कामना करना और फिर उसे जलाना। हम सभी जानते हैं कि उपले अर्थात् गोबर का सूखा हुआ पिंड, जिसमें अनन्त-त्रसजीव पाये जाते हैं, इसीप्रकार लकड़ियों की छाल में व दरारों में अनन्त छोटे-बड़े कीड़े-मकोड़े छुपे रहते हैं, उन लकड़ियों व उपलों को जलाना यानि अनंत-जीवों की हिंसा करना, फिर उसमें आनंद माननेरूप हिंसानन्दी-रौद्रध्यान करना– यह सब जैनधर्म की पहचान कैसे हो सकती है ?? विचारना…..
‘होलिका’ या ‘होली’ तो किसी वैदिक-पुराणों की कथा में आगत ‘प्रह्लाद’ नामक व्यक्ति की रिश्तेदार थी, जो कि उस बालक प्रह्लाद को गोदी में लेकर आग में जल मरी थी। उसके प्रतीक के रूप में होलिका-दहन करना और उसे पूजना क्या किसी भी रूप में वीतरागी-जिनाम्नाय व परम-अहिंसक जैनधर्म में संगत हो सकता है ? कदापि नहीं। भाई! जैनधर्म में तो इस पर्व का किसी भी रूप में कहीं कोई उल्लेख भी नहीं मिलता।
दूसरा-पक्ष आता है होलिका-दहन के अगले दिन रंगों से खेलना। वह भी पूरीतरह से लौकिक मनोरंजन-प्रधान एवं रागादि-विकार-वर्धक-क्रिया ही है। और इसे धार्मिक-पर्व के रूप में मनाना तो स्पष्ट ही मिथ्या-मान्यता है। इसमें भी जलकायिक एवं वनस्पतिकायिक अनंत-जीवों की हिंसा तो प्राचीन-परम्परा की फूलों के रंगों व गुलाल से खेली जाने वाली होली में ही हो जाती है। तथा आजकल जो कैमिकल्स से बने खतरनाक-रंगों से होली खेली जाने लगी है, जोकि आपके चमड़ी/स्किन को खराब करता है, आपकी आँखो में जाने पर रोशनी तक जा सकती है, जरा सोचिये, जब वही कैमिकल उन जीवों जो पृथ्वी और नाले आदि स्थानों पर रहते हैं, उनके ऊपर गिरता होगा, तब संभवतः उनका तो मरण ही होता होगा। पैसे की बर्बादी, समय की बर्बादी, जल की बर्बादी… विचार तो कीजिये क्या ये सही है ?
इसीप्रकार होली के अगले दिन भाई-दूज मनाना भी विचारणीय है। भाई! जब होली ही हमारा त्यौहार नहीं है, तो भाई-दूज की परम्परा कहाँ से आई ? जिन ‘यम’ और ‘यमी’ के भाई-बहिन के रूप में वैदिकलोग यह पर्व मनाते हैं, उनकी तो कल्पना तक जैनधर्म में नहीं है, तब भाई-दूज के रूप में इस पर्व को मनाना व इसकी धार्मिकता की कल्पना करना क्या सही है ?
रंगों के त्योहार होली को धार्मिक पर्व के रूप में मनाना, खेलना, बधाई देना-लेना आदि सब इन हिंसा-जन्य कार्यों की कृत, कारित, अनुमोदना करने से एकमात्र पाप-बंध का ही कारण है।
अतः जिनधर्मानुयायी-गृहस्थ को कभी भी इसे धार्मिक-पर्व के रूप में तो मनाना ही नहीं चाहिये, लौकिक-रूप में भी हिंसा व अमर्यादित-आचरण को बढ़ानेवाला होने से वे इसे कभी भी नहीं मनायेंगे– ऐसा मेरा दृढ़-विश्वास है।
लेकिन बिडम्बना तो आज यहाँ तक हो गयी है कि कुछ साधर्मी जाकर दिगम्बर-वेषधारी मुनिपद-धारकों को भी प्रतीकात्मकरूप में रंग-गुलाल लगाने लगे हैं, और वे लगवा भी लेते हैं– इससे बड़ा-दुष्प्रभाव हमारी अहिंसक व वीतरागी-संस्कृति पर और क्या हो सकता है ? अतः आवश्यकता है कि हम सभी पूर्ण सतर्क व सावधान होकर इसके बढ़ते दुष्प्रभाव को रोकें।
हे आत्मन्! इस दिन को देवदर्शन-पूजन, तीर्थवंदना व तत्त्वचर्चा आदि मांगलिक-कार्यों में शांतिपूर्वक बितायें, और अपनी पवित्र-संस्कृति की रक्षा का संकल्प लें। अभी तक जो कुछ हो लिया, उसे आदर्श व अपनी परम्परा नहीं मानें, बल्कि इस विकृति को दृढ़-संकल्पपूर्वक सुधारें– यही अपेक्षा सुधी-समाज के हर सदस्य से है।
यदि यह परिवर्तन व सुधार हो जाता है, तो हम कह सकेंगे कि ‘हाँ, हम जैनों में जैनत्व की पुनर्स्थापना हो–ली’ !!
ये सत्य है कि होली से संबंधित बहुत से गीत हमारे परम-तपस्वी मुनिराजों के लिए बने हैं, कैसे कर्मों की होली जलाना, ज्ञान की गुलाल लगाना, विवेक की पिचकारी से संयम के रंग बरसाना आदि लेकिन ये सभी भावनात्मक-प्रतीक हैं। इन गीतों व भजनों की ओट लेकर जैनधर्म में होली की तर्कसंगतता सिद्ध करनेवाले आधुनिक लेखकों से मेरा निवेदन है कि वे यदि इस निमित्त कुछ प्रेरणा ही देना चाहते हैं, तो ज्ञान की आराधना, संयम की साधना, विवेकपूर्ण व्यवहार एवं दुरित-कर्मों को नष्ट करने के सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें। गृहीत-मिथ्यात्व एवं हिंसक-आचरण को बढ़ावा देने वाले इस त्योहार को जैन-पर्व सिद्ध करके जैन-वैदुष्य को तिरस्कृत न करें। क्योंकि जैन-विद्वानों की गरिमा गृहीत-मिथ्यात्व की मान्यताओं को मिटाने तथा हिंसक-आचरण घटाने में है, इन्हें बढ़ावा देने में नहीं।
— डॉ रंजना जैन