जैन धरम के अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म चैत्र सुदी तेरस को हुआ था। जैन दर्शन में अहिंसा, अनेकांतवाद और अपरिग्रह का प्रतिपादन उनके द्वारा भी किया गया। आज भी महावीर स्वामी के सिद्धांत मानव जगत के लिए बहुत हितकारी हैं।
जो मोह माया मान मत्सर, मदन मर्दन वीर है।
जो विपुल विघ्नों बीच में भी, ध्यान धारण धीर है॥
जो तरण-तारण भव निवारण, भव जलधि के तीर है।
वे वंदनीय जिनेश तीर्थंकर स्वयं महावीर है॥
भगवान महावीर जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर है। तीर्थंकर उन्हें कहते है, जिन्हें संसार-सागर से पार होने का मार्ग बताया तथा स्वयं पार हुए तीर्थंकर कहलाते है। तीर्थंकर महावीर ने जैन धर्म की स्थापना नहीं की, अपितु जैन धर्म अनादि काल से है। भगवान महावीर से पहले जैन धर्म में 23 तीर्थंकर और हुए है, जिनमें भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे। भगवान महावीर 24वें तीर्थंकर होकर अंतिम तीर्थंकर है।
वे धर्म क्षेत्र के वीर, अतिवीर और महावीर थे, युद्घ क्षेत्र के नहीं, यु़द्घ क्षेत्र और धर्म क्षेत्र में बहुत बड़ा अंतर है। युद्घ क्षेत्र में शत्रु का नाश किया जाता है और धर्म क्षेत्र में शत्रुता का नाश किया जाता है। युद्घ क्षेत्र में पर को जीता जाता है और धर्म क्षेत्र में स्वयं को जीता जाता है। युद्घ क्षेत्र में पर को मारा जाता है।
आज से लगभग हजारों वर्ष पूर्व इसी भारत वर्ष में धन धान्य से परिपूर्ण विशाल कुंडलपुर (कुण्डग्राम) नामक अत्यंत मनोहर नगर था जिसके सुयोग्य शासक राजा सिद्घार्थ थे। लिच्छवी वंश के प्रसिद्घ क्षत्रिय राजा थे। उनकी रानी का नाम त्रिशला था, जो राजा चेतक की सबसे बड़ी पुत्री थी। राजा सिद्घार्थ को रानी त्रिशाला अत्याधिक प्रिय होने के कारण वे उन्हे ‘प्रियकारणी’ भी कहते थे।
महारानी त्रिशला के गर्भ से ही भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुकल त्रयोदशी के दिन हुआ था। नित्य वृद्घिगत देख उनका सार्थक नाम ‘वर्धमान’ रखा गया। उनका जन्मोत्सव बड़े ही धूमधाम से इन्द्रों व देवों द्वारा मनाया गया। बालक वर्धमान जन्म से ही स्वस्थ, सुंदर एवं आकर्षक व्यक्तित्व और निर्भीक बालक थे। उनके पांच नाम प्रसिद्घ है। वर्धमान, वीर, अतिवीर, महावीर, सन्मति।
एक बार एक हाथी मदोन्मत हो गया और गजशाला के स्तम्भों को तोड़कर नगर में विपलव मचाने लगा। राजकुमार वर्धमान को पता लगते ही उन्होंने वहां पहुंचकर अपनी शक्ति व युक्तियों से गजराज पर काबू पा लिया। इस वीरता को देख लोग तभी से उन्हें वीर नाम से पुकारने लगे।
घोर तपस्या करते हुए जब 12 साल बीत गए तब मुनिराज वर्धमान को 42 वर्ष की अवस्था में जूभिका नामक ग्राम के समीप ऋजूकूला नदी के किनारे, मनोहर नामक वन में, साल वृक्ष के नीचे, वैशाख शुक्ल दशमी के दिन शाम के समय उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। कैवल्य ज्ञान प्राप्ति के बाद देवों द्वारा ‘कैवल्य ज्ञान कल्याणक’ मनाया गया। उनका समवशरण लगा तथा 66 दिन बाद दिव्य ध्वनी खिरी, उनके प्रमुख गणधर इन्द्रभूति गौतम थे। इन्द्रभूति के अलावा भगवान के 10 गणधर और थे।
श्रावक-शिष्यों में प्रमुख मगध सम्राट महाराजा श्रेणिक विम्बसार थे। वे ही उनके प्रमुख श्रोता थे। राजा श्रेणिक ने भगवान से सबसे अधिक प्रश्न साठ हजार पूछे थे। उनकी प्रमुख आर्यिका चंदनबाला थी उनके चतुर्विध संघ में 14 हजार साधु, 36 हजार आर्यिकाएं थी।
महावीर भगवान के समय में हिंसा अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुंच चुकी थी। लोग धर्म के नाम पर बलि देते थे। धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़ा, दंगा-फसाद एवं अत्याचार हो रहा था। तभी भगवान महावीर ने जगह-जगह घूमकर जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया था तथा सत्य-अंहिसा पर अत्याधिक जोर दिया।
उनके प्रमुख संदेश थे, ‘जिओ और जीने दो’ जैनियों के तीन लक्षण बतलाए।
- प्रतिदिन देव-दर्शन करना,
- पानी छानकर पीना,
- रात्रि भोजन नहीं करना।
इसके अलावा पांच महाव्रत, पांच अणुव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, छः आवश्यक की विस्तृत जानकारी दी। निरंतर धर्म का प्रचार करते हुए अंत में भगवान 72 वर्ष की आयु में पावापुर पहुंचे, वहां उन्होंने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को पूर्णतः देह परित्याग कर निर्वाण पद प्राप्त किया।
प्रभु के निर्वाण का समाचार पाकर देवों ने आके महान उत्सव किया, जिसे निर्वाण महोत्सव कहते है। पावापुर नगरी प्रकाश से जगमगाने लगी। तीर्थंकर महावीर को प्रातः निर्वाण हुआ और उसी दिन सायंकाल को उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम, गणधर को कैवल्य ज्ञान प्राप्ति हुई।
पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वॉर्मिंग के दौर में भगवान महावीर की प्रासंगिकता बढ़ गई है। भगवान महावीर को ‘पर्यावरण पुरुष’ भी कहा जाता है। अहिंसा विज्ञान को पर्यावरण का विज्ञान भी कहा जाता है
भगवान महावीर मानते थे कि जीव और अजीव की सृष्टि में जो अजीव तत्व है अर्थात मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति उन सभी में भी जीव है अत: इनके अस्तित्व को अस्वीकार मत करो। इनके अस्तित्व को अस्वीकार करने का मतलब है अपने अस्तित्व को अस्वीकार करना। स्थावर या जंगम, दृश्य और अदृश्य सभी जीवों का अस्तित्व स्वीकारने वाला ही पर्यावरण और मानव जाति की रक्षा के बारे में सोच सकता है।
जीव हत्या पाप है : जैन धर्म का नारा है ‘जियो और जीने दो’। जीव हत्या को जैन धर्म में पाप माना गया है। मानव की करतूत के चलते आज हजारों प्राणियों की जाति-प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। सिंह पर भी संकट गहराता जा रहा है। यदि मानव धर्म के नाम पर या अन्य किसी कारण के चलते जीवों की हत्या करता रहेगा तो एक दिन मानव ही बचेगा और वह भी आखिरकार कब तक बचा रह सकता है?
मांसाहारी लोगों का कुतर्क : मांसाहारी लोग यह तर्क देते हैं कि यदि मांस नहीं खाएंगे तो धरती पर दूसरे प्राणियों की संख्या बढ़ती जाएगी और वे मानव के लिए खतरा बन जाएंगे। लेकिन क्या उन्होंने कभी यह सोचा है कि मानव के कारण कितनी प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। धरती पर सबसे बड़ा खतरा तो मानव ही है, जो शेर, सियार, बाज, चील सभी के हिस्से का मांस खा जाता है जबकि भोजन के और भी साधन हैं। जंगल के सारे जानवर भूखे-प्यासे मर रहे हैं। अधर्म है वो धर्म जो मांस खाने को धार्मिक रीति मानते हैं। हालांकि वे और भी बहुत से तर्क देते हैं, लेकिन उनके ये सारे तर्क सिर्फ तर्क ही हैं उनमें जरा भी सत्य और तथ्य नहीं है। हर पशु जानवर अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार खाना कहते हैं जैसे गाय भैंस बकरी हाथी घोडा बन्दर पूर्ण शाकाहार होते हैं ,शेर भालू आदि मांसाहारी हैं वो मान्साहारी होते हैं पर मनुष्य शाकाहारी होते हुए भी मांसाहारी और शाकाहारी हैं ,मनुष्य का कोई निश्चित धर्म नहीं बचा .
वृक्ष के हत्यारे : कटते जा रहे हैं पहाड़ एवं वृक्ष और बनते जा रहे हैं कांक्रीट के जंगल। तो एक दिन ऐसा भी होगा, जब मानव को रेगिस्तान की चिलचिलाती धूप में प्यासा मरना होगा। जंगल से हमारा मौसम नियंत्रित और संचालित होता है। जंगल की ठंडी आबोहवा नहीं होगी तो सोचो धरती आग की तरह जलने लगेगी। जंगल में घूमने और मौज करने के वो दिन अब सपने हो चले हैं।
महानगरों के लोग जंगल को नहीं जानते इसीलिए उनकी आत्माएं सूखने लगी हैं। रूस और अमेरिका में वृक्षों को लेकर पर्यावरण और जीव विज्ञानियों ने बहुत बार शोध करके यह सिद्ध कर दिया है कि वृक्षों में भी महसूस करने और समझने की क्षमता होती है। जैन धर्म तो मानता है कि वृक्ष में भी आत्मा होती है, क्योंकि यह संपूर्ण जगत आत्मा का ही खेल है। वृक्ष को काटना अर्थात उसकी हत्या करना है।
वृक्ष से मिलती शांति और स्वास्थ्य : जैन धर्म में चैत्य वृक्षों या वनस्थली की परंपरा रही है। चेतना जागरण में पीपल, अशोक, बरगद आदि वृक्षों का विशेष योगदान रहता है। ये वृक्ष भरपूर ऑक्सीजन देकर व्यक्ति की चेतना को जाग्रत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इसीलिए इस तरह के सभी वृक्षों के आस-पास चबूतरा बनाकर उन्हें सुरक्षित कर दिया जाता था जिससे वहां व्यक्ति बैठकर ही शांति का अनुभव कर सकता है।
जैन धर्म ने सर्वाधिक पौधों को अपनाए जाने का संदेश दिया है। सभी 24 तीर्थंकरों के अलग-अलग 24 पौधे हैं। बुद्ध और महावीर सहित अनेक महापुरुषों ने इन वृक्षों के नीचे बैठकर ही निर्वाण या मोक्ष को पाया। धरती पर वृक्ष है ईश्वर के प्रतिनिधि।
इसीलिए वर्तमान में वर्धमान की आवश्यकता हैं।
— डॉक्टर अरविन्द जैन