जैन धर्म में दीपावली का विशेष महत्व है।
आज से 2545 वर्ष पूर्व इसी दिन अमावस्या को जैन धर्म के 24वें तीर्थकर भगवान महावीर ने बिहार की पावापुरी की भूमि से निवार्ण प्राप्त किया था। मान्यता है कि इसी दिन पावापुरी में भगवान महावीर के चरण चिन्ह के स्थान के ऊपर एक छत्र स्वयं ही घूमने लगता है। भगवान के निवार्ण प्राप्त करने के उपरांत प्रात:कालीन बेला में देवों द्वारा दिव्य दीपों को आलोकित कर निर्वाण महोत्सव मनाया गया।
आज भी हम सब भगवान महावीर निवार्ण दिवस के रूप में दीपावली का त्यौहार मनाते हैं। इस दिन विधि-विधान से भगवान महावीर की पूजा-अर्चना की जाती है, निर्वाण लाडू (नैवेद्य) चढाकर आरती की जाती है तत्पश्चात बहुतायत की संख्या में दीपकों से मंदिर को सजाया जाता है। इसके अलावा सायंकाल को मंदिर जी में दीपमालिका की जाती है। दीपमालिका ज्ञान का प्रतीक है। दीपमालिका करते समय मन में भावना भानी चाहिए कि हम सभी को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो और जीवन में अंधकार का नाश हो।
इसके अलावा चतुर्थकाल का समापन तथा पंचमकाल का सन्धिकाल था, जब कार्तिक शुक्ल एकम से नये संवत्सर की शुरूआत हुई थी, तभी से यह श्री वीर निवार्ण संवत के नाम से प्रचतित हुआ।
भारतीय संस्कृति के आस्थावान अनुयायी इस दिन व्यावसायिक संस्थानों में हिसाब-किताब की बहियों का शुभ महूर्त करते हैं और इसी दिन से नये लेखा वर्ष का शुभारम्भ माना जाता है। वैसे इसी दिन नयी बहियों की खरीददारी की जाती है और मंगल दिवस दीपावली पर विधि-विधान के अनुसार श्री महावीर स्वामी की पूजा एवं अन्य मांगलिक क्रियायें कर शुभ बेला में स्वास्तिक मांड कर रख देते हैं और पांच माह बाद नये वित्तीय वर्ष 1 अपैल से शुरूआत करते हैं।
कई लोग दुविधाग्रस्त हैं कि नयी बहियों को दीपावली पर लाना उचित है अथवा 1 अप्रैल को लाना। इस संबंध में जानना जरूरी है कि दीपोत्सव पर्व को मनाने का कारण श्री वीर प्रभु का निवार्ण तथा गौतम गणधन श्री गौतम स्वामी को कैवल्य लक्ष्मी की प्राप्ति होता है जबकि पूर्वकाल में लेखावर्ष का शुभारम्भ तथा संवत्सरी भी इससे सम्बद्ध होने से इसी अवसर पर नयी बहियां खरीदकर लाना प्रासंगिक एवं युक्तियुक्त था। जो लोग दीपावली के दिन नयी बहियां लाते हैं और उन्हें रख देते हैं और 1 अप्रैल से उनका शुभारम्भ करते हैं, तो उन्हें ऐसा करना चाहिए।
दीपावली के पूर्व कार्तिक त्रयोदशी को भगवान महावीर ने बाह्य समवसरण लक्ष्मी का त्याग कर मन, वचन और काय का निरोध किया था। प्रभु के योगों के निरोध से त्रयोदशी धन्य हो उठी थी। इसीलिए इस तिथि को धन्य तेरस के नाम से जाना जाता है। यह पर्व देवस त्याग के महत्व को दर्शाता हुआ संदेश देता है कि हम मन, वचन और काय से कचेष्ठाओं का त्याग करें और बाह्य लक्ष्य से हटकर अंतर के शात स्वर्ण रत्नत्रय को प्राप्त करें। धन्य तेरस के दिन लोग रुपये-पैसे को लक्ष्मी मान कर पूजा करते हैं, जो उपयुक्त नहीं है बल्कि इस पावन दिन में मोक्ष व ज्ञान लक्ष्मी तथा गौतम गणधन की पूजा करनी चाहिए, जो शास्त्रानुकूल, तथा कल्याणकारी है।
इसके अलगे दिन चतुर्दशी को भगवान महावीर ने 18000 शीलों की पूर्णता को प्राप्त किया था। वे रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त कर आयोगी अवस्था ने निज अवस्था में लीन हुए थे। अतएव इस पर्व दिवस को रूप चौदस के दिन ब्रहमचर्य का पालन करते हुए व्रतादि धारण करना चाहिए। भगवान की दिव्यध्वनि स्यात, अस्ति-नास्ति, अवक्तव्य आदि सात रूपों में खिरीं थी। इसलिए इस दिन को गोवर्धन के रूप में मनाया जाता है। गो यानी जिनवाणी तथा वर्धन यानी प्रगटित वरद्धित। इस दिन भगवान की देशना के पश्चात पुन: जिनवाणी का प्रकाश हुआ। इसलिए इस दिन जिवाणी की पूजा करनी चाहिए।
जैन धर्म के अनुसार दीपावली पर सम्पूर्ण पूजा-पद्धति के बारे में आपको बता रहे हैं।
दीपावली को प्रात:कालीन बेला में स्नान आदि कर स्वच्छ कपड़े पहनकर घर से एक थाली में दीपक (कम से कम 11 और श्रद्धानुसार) सजाकर उसे स्वच्छ कपड़े से ढ़ककर पूरे परिवार के साथ मंदिर जी लेकर जाएं। मंदिर जी में दर्शन करने के बाद दीपकों को जला लें तत्पश्चात सभी वेदियों पर दीपक सजाते जाएं। इसके बाद भगवान महावीर की पूजा-अर्चना कर निवार्ण लाडू चढ़ाएं। इसके पश्चात की पूजा-पद्धति के बारे में आप भी जाने:-
दीपावली पूजन सम्पूर्ण जैन विधि
दीपमालिका-विधान एवं नवीन बही मुहूर्त विधि
प्रात:काल श्री जिनेन्द्र भगवान के दशर्न पूजन करने मन्दिर जाने के पहले मन्दिर से आने के पश्चात अपने घर पर ‘‘ऊँ ह्रीं अर्हं अ दि आ उ सा श्री महावीर जिनेन्द्राय नम:’’ मंत्र की एक माला तथा महावीराष्टक स्त्रोत का पाठ करना चाहिये।
सायंकाल को उत्तम गौधूलोक लग्न में अथवा दिन के समय भी अपनी दुकान के पवित्र स्थान में ऊँची चौकी पर रकाबी में विनायक यंत्र का आकार मांड कर ठोणो में रख कर विराजमान करें।
उसी चौकी के आगे दूसरी चौकी पर शास्त्रजी (जिनवाणी) विराजमान करना चाहिये। इन दोनो चौकियों के आगे एक छोटी चौकी पर पूजा की सामग्री तैयार कर रखें और उसी के पास एक दूसरी चौकी पर थाल में स्वस्तिक मांड कर पूजा की सामग्री चढाने के लिये रखें। बहियाँ, दावात-कलम आदि पास में रख लें। घी का दीपक दाहिनी ओर तथा बाँई ओर धूपदान करना चाहिए। दीपक में घृत इस प्रमाण से डालें के रात्रि भर वह दीपक जलता रहे।
पूजा करने वाले को पूर्व या उत्तर दिशा में मुख कर के पूजा करना चाहिये। जो परिवार में बडा हो या दुकान का मालिक हो वह चित्त एकाग्र कर पूजा करे और उपस्थित सभी लिग पूजा बोलें तथा शांति से सुनें। पूजा प्रारम्भ करने से पहले उपस्थित सब सज्जनों को तिलक लगाना चाहिये तथा दाहिने हाथ में कंकण बाँधना चाहिये। तिलक करते समय नीचे लिखा श्लोक पढे।
मंगलम भगवान वीरो, मंगलम गौतमो गणी।
मंगलम कुन्द कुन्दार्यो, जैन धर्मोस्तु मंगलम्।।
तिलक करने के बाद नित्य-नियम-पूजा करके श्री महावीर स्वामी श्री गौतम गणधर स्वामी तथा श्री सरस्वती देवी की पूजा करनी चाहिये।
नई बही मुहूर्त की सामग्री
अष्ट द्रव्य धुले हुए, धूपदान 1, दीपक 2, लालचोल 1 मीटर, सरसों 50 ग्राम, थाली 1, श्रीफल1, लोटा जल का1, लच्छा, शाख 1, धूप 50ग्राम, अगरबत्ती, पाटे 2, चौकी 1, कुंकुम 50ग्राम, केसर पिसी हुई, कोरे पान, दवात, कलम (या लीड) 2
सिन्दूर घी मिलाकर (श्री महावीरायनम: और लाभ शुभ दुकान की दीवाल पर लिखने को) फूलमालायें, नई बहियाँ, माचिस, कपूर देशी सुपारी आदि।
नवीन बही मुहूर्त
पूजा के पश्चात हर बही में केशर से साथिय मांड कर निम्न प्रकार लिखें तथा एक- एक कोरा पान रखे।
श्री
श्री श्री
श्री श्री श्री
श्री श्री श्री श्री
श्री श्री श्री श्री श्री
श्री ऋषभ देवाय नम:।। श्री महावीराय नम:।। श्री गौतम-गणधरायनम:।। केवलज्ञान लक्ष्म्यै नम:।। श्री जिन सरस्वत्यै नम:।। श्री शुभ मिति कार्तिक बदी 30ज्.. ।।
….वार्।। दिनांक …/…/19ई. को शुभ बेला में दुकान श्री की बही का मुहूर्त किया
यह विधि हो जाने के बाद विधि करनेवाले, दुकान के मुख्य सजन को बही में लच्छ बान्ध कर हाथ में बही देवें और पुश्प क्षेपे।
इसके बाद घर के प्रमुख महाशय नीचे लिखा हुआ पद्य व मंत्र पढकर शुभकामना करें और फूलमाला पहिनाकर पुष्प क्षेपण करें।
पद्य
आरोग्य बुद्धि धन धान्य समृद्धि पावें।
भय रोग शोक परिताप सुदुर जावें।
सद्धर्म शास्त्र गुरु भक्ति सुशांति होवे।
व्यापार लाभ कुल वृद्धि सुकीर्ती होवे।।
श्री वर्धमान भगवान सुबुद्धि देवें।
सन्मान सत्यगुण संयम शील देवें।।
नव वर्ष हो यह सद सुख शांति दाई।
कल्याण हो शुभ तथा अति लाभ होवे।।
पूजा प्रारम्भ
अर्हंतो भग्वंत इन्द्रमहिता: सिद्धीरा:।
आचार्या जिन शासनोन्नितकरा:पूज्या उपाध्यायका:।।
श्रीसिद्धांतसुपाठ का मुनिवरा रत्नत्रयाराधका:।
पंचैते परमेष्ठि न: प्रतिदिनं कुर्वंतु न: मंगलम्।।
ओं जय जय जय नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु।
णमो अरहंताणं, ण्मो सिद्धाणं, णमो आइरियणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। चतत्तारि मंगलम, अरिहंता मंगलम, सिद्धा मंगलम, साहू मंगलम्। केवलि पण्णत्तोधम्मो मंगलम्। चत्तारि लोगुत्तम, अरिहंतालोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तम। केवलिपण्णत्तो धम्मोलोगुत्तमा, चत्तारिसरणं पव्वज्जामि , सहूशरणं पव्वज्जामि केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि। ऊँअनादिमूलमंत्रेभ्यो नम:
(यह पढ कर पुष्पांजलि क्षेपित करें)
विनायक यंत्र पूजा अर्ध्य
अच्छाम्भ: शुचि चन्दनाक्षत सुमै-नैर्वेद्य कैश्चारु भि:।
दीपैर्धूप फलोत्तमै: समुदितैरेभि: सुपात्रस्थितै:।।
अर्हत्सिद्ध सुसूरिपाठक मुनीन लोकोत्तमान मंगलान्।
प्रत्यूहौधनिवृत्तये शुभकृत:, सेवे शरण्यानहम्।।
ऊँ ह्रीं श्री शरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
देव शास्त्र-गुरु पूजा का अर्ध्य
जल परम उज्जवल गन्ध क्षअत- पुष्प चरु धरु ँ।
वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरु ँ।।
इह भाँति अर्ध्य चढाय नित भवि करत शिव पंकति मचूँ।
अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निर्गंथ नित पूजा रचूँ।।
वसुविधि अर्ध्य संजोय कै, अति उछाहमन कीन्।
जासों पूजों परम पद, देवशास्त्र-गुरु तीन्।।
ऊँ श्री देवशास्त्र गुरु भ्यो अर्नध्यपद प्राप्तये अर्ध्यम निर्पामीति स्वाहा।
बीस महाराज का अर्ध्य
जल फल आठों द्रव्य संभार, रत्न जवाहर भर भर थार्।
नमूँ कर जोड, नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।।
पाँचों मेरु विदेह सुथान, तीर्थंकर जिन बीस महान।
नमूँ कर जोड नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।।
ऊँ ह्रीं श्री विदेहक्षेत्रस्य सीमन्धरादि विद्यमांर्विशर्ति तीर्थंकरेभ्यो अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा नमूँ कर जोड, नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।।
सिद्ध पर्मेष्ठी का अर्ध्य
जल फल वसु वृन्दा, अरघ अमन्दा, जजत अनन्दा के कन्दा।
मेटे भवफन्दा, सब दु:ख दन्दा, हीराचन्दा तुम बन्दा।।
त्रिभुवन के स्वामी, त्रिभुवन, नामी, अंतरजामी अभिरामी।
शिवपुर विश्रामी, निज निधिपामी सिद्धजजामी सिरनामी।।
ऊँ ह्रीं श्री अनाहत परक्रमाय सर्वकर्म विनिर्मुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
चौबीस महाराज का अर्ध्य
फलफल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करों।
तुमको अरपों भवतार, भवतरि मोक्ष वरों।।
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द कन्द सही।
पदजजत हरत भव फन्द, पावक मोक्षमही।।
अंतरायकर्म नाशार्थ अर्ध्य
लाभ की अंतराय के वस जीवसु न लहै।
जो करै कष्ट उत्पात सगरे कर्मवस विरथा रहै।।
नहीं जोर वाको चले इक छिन दीन सौ जग में फिरै।
अरिहंत सिद्ध अधर धरिकै लाभ यौ कर्म कौ हरै।।
ऊँ ह्रीं लाभांतरायकर्म रहिताभ्याम अहर्तसिद्ध परमेष्ठिभ्याम अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा। पुष्पांजलिं क्षिपेत
श्री महावीर जिनपूजा (कविवर वृन्दावन कृत)
श्रीमतवीर हरै भवपीर सुखसीर अनाकुलताई।
के हरि अंक अरीकर दंक नये हरि पंकति मौलिसुहाई।।
मैं तुमको इत थापत हों प्रभु भक्ति समेत हिये हरखाई।
हे करु णाधन धारक देव, इहां अब तिष्ठहु शीघ्रहिं आई।।
ऊँ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय पुष्पांजलि:।
क्षीरोदधि सम शुचि नीर, कंचन भृग भरों।
प्रभुवेग हरो भव्पीर, यातैंधार करों।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिर चन्दन सार, केसर संग धसों।
प्रभु भव आताप निवार, पूजत हिय हुलसों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय चन्दनम निर्वपामीति स्वाहा।
तन्दुलसित शशिसम शुद्ध लीनों थार भरी।
तसु पुंज धरों अविरु द्ध, पावों शिव नगरी।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय क्षअतान निर्वपामीति स्वाहा।
सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे।
सो मंथन भंजन हेत, पूजों पद थारे।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा।
रस रज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी।
पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा।
तम खिन्डत मन्डित नेह, दीपक जोवत हों।
तुम पदतर हे सुख गेह, भ्रमतम खोवत हों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय दीपम निर्वपामीति स्वाहा।
हरि चन्दन अगर कपूर चूर सुगन्ध करा।
तुम पदतर खेवत भूरि, आठों कर्म जरा।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय धूपम निर्वपामीति स्वाहा।
रितुफल कल वर्जित लाय, कंचन थार भरों।
शिवफलहित हे जिनराय, तुम ढिग भेंट धरों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय फलम निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल वसु सजि हिम थार, तनमन मोद धरों।
गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
पंच कल्याणक
मोहि रखो हो सरना श्रीवर्धमान जिनराय जी मोहि रखो हो सरना।
गरम साढ सित छट्ठ लिओ तिथि, त्रिशला उर अघहरना।
सुर सुरपति तित सेव करीनित, मैं पूजौं भव तरना।।
मोहि रखो हो सरना श्रीवर्धमान जिनराय जी मोहि राखो
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय आषाढ शुक्लषष्ठ्यां गर्म मन्गल मण्डिताय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
जनम चैतसित तेरस के दिन कुन्डलपुर कनवरना।
सुरगिर सुर गुरु पूज रचायो मैं पूजों भवहारना।। मोहि.।।
ऊँ ह्रीं जैव शुक्ल त्रयोदश्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर असित मनोहर दश्मी, ता दिन तप आचरना।
नृप कुमार घर पारन कीनो, मैं पूजो तुम चरना।। मोहि.।।
ऊँ ह्रीं मार्गशीषर्कृष्णदशम्यां तपो मंगल मंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
शुक्ल दशै बैशाख दिवस अरि घाति चतुक छय करना।
केवल लहि भवि भवसरतारेम जजों चरन सुख भरना।। मोहि.।।
ऊँ ह्रीं बैसाख शुक्ल दश्म्याम ज्ञान कल्याण प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
कातिक श्याम अमावस शिवतिय, पावापुर तें बरना।
गनफिनवृन्द जजें तित बहुविधि, मैं पूजौं भवहरना।। मोहि।।
ऊँ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
गनधर, असनिधर, चक्रधर, हरधर गदाधर वरवदा।
अरु चापधर विद्यासुधर तिरसूलधर सेवहिं सदा।।
दुख हरन आनन्द भरन तारन तरन चरन रसाल है।
सुकुमाल गुनमनिमाल उन्नत, भाल की जयमाल है।।
जय त्रिशला नन्दन, हरिकृत वन्दन, जगदानन्द, चन्दवरं।
भव तापनिकन्दन तन कन मन्दन, रहितसपन्दन, नयनधरं।।
जय केवल भानु कला सदनं। भविकोक विकाशन कंजवनं।
जगजीत महारिपु मोहहरं। रजज्ञानदृगांबर चूरकरं।।
गर्वादिक मंगल मंडित हो। दुख दारिद्र को नित खिन्डत हो।
जगमांहि तुम्ही सत्पंडित हो। दुख दारिद्र को नित खंडित हो।
हरिवंश सरोजन को रवि हो। बल्वन्त महंत तुम्हीं कवि हो।।
लहि केवल धर्म प्रकाश कियो। अबलों सोई मारगराजतियो।
पुनि आपतने गुनमांहि सही। सुर मग्न रहै जितने सबहीं।।
तिनकी बनिता गुणगावत हैं। लय मानिन सों मन भवत हैं।
पुनि नाचत रंग उमंग भरी। तुम भक्ति विषै पग एम धरी।।
झननं झननं झननं झननं। सुर लेत तहां तननं तननं।
घननं घननं घन घंट बजै। दृमदं दृमदं मिरदंग सजै।
गगनांगनगर्भगता सुगता। ततता ततता अतता वितता।।
धृगतां धृगतां गति बाजत है। सुरताल रसाल जु छाजत है।
सननं सननं सननं नभमें। इक रूप अनेक जुधारि भ्रमैं।।
कै नारि सुबीन बजावति हैं। तुमरो जस उज्ज्वल गावति हैं।
करताल विषै करताल धरै। सुरताल विशाल जुनाद करै।।
इन आदि अनेक उछाह भरी। सुर भक्ति करें प्रभुजी तुमरी।
तुमही जगजीवन के पितु हो। तुमही बिन कारन के हितु हो।
तुमही सब विघ्न विनाशन हो। तुमही निज आनन्द भासन हो।
तुम ही चितचिंतितदायक हो। जगमांहि तुम्हीं सब लायक हो।।
तुम्हरे पन मंगलमांहि सहि। जिय उत्तम पुन्य लियो सबही।।
हमको तुमरी सरनागत है। तुमरे गुन में मन पागत है।।
प्रभु मो हिय आप सदा बसिये। जबलों वसु कर्म नहीं निसये।।
तबलों तुम ध्यान हिये वरतो। तबलों श्रुतचिंतन चित्त रतो।।
तबलों व्रत चारित चाहतु हों। तबलों शुभभाव सुगाहतु हों।।
तबलोंसत संगति नित्य रहो। तबलों मम संजम चित्त गहों।।
जबलों निहं नाश करों अरिकों। शिवनारि वरों समताधरिको।।
यह द्यो तबलों हम्को जिनजी। हम जाचतु हैं इतनी सुनजी।।
श्रीवीर जिनेशा निमत सुरेशा नागनरेशा भगति भरा।।
वृन्दावन ध्यावें विघ्न नशावै। वांछित पावे शर्मवरा।।
ऊँ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय महार्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सन्मते के जुगलपद, जो पूजै धरि प्रीत।
वृन्दावन सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत।।
श्री सरस्वती पूजा (दोहा)
जनम जरा मृतु क्षय करै, हरै कुनय जड रीति।
भवसागरसौं ले तिरै, पूजै जिंवच प्रीति।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भव सरस्वत्यै पुष्पांजल:।
छीरोदधिगंगा विमल तरंगा, सलिल अभंगा, सुखगंगा।
भरि कंचन झारी, धार निकारी तृषा निवारी हित चंगा।।
तीर्थंकर की ध्वनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्य भई।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर मंगाया चन्दन आया, केशर लाया रंग भरी।
शारदपद वन्दों, मन अभिनन्दों,पाप निकन्दों दाह हरी।।तीर्थ:
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै चन्दनम निर्वपामीति स्वाहा।
सुखदासक मोदं, धारक मोदं अति अनुमोदं चन्दसमं।
बहु भक्ति बढाई, कीरति गाई,होहु सहाई, मात ममं। हरी।।तीर्थ:
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै क्षअतान निर्वपामीति स्वाहा।
बहु फूल सुवासं, विमल प्रकाशं, आनन्दरासं लाय धरे।।
मम काम मिटायो, शील बढायो, सुख उपजायो दोष हरे।तीर्थ:
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा।
पकवान बनाया, बहुघृत लाया,सब विध भाया मिष्ट महा।
पूजूं थुति गाऊं, प्रीति बढाऊँ, क्शुधा नशाऊं हर्ष लहा।।तीर्थ:
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा।तीर्थ:
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा।
कर दीपक-जोतं, तमक्षय होतं, ज्योति उदोतं तुमहि चढै।
तुम हो प्रकाशक, भरमविनाशक, हम घट भासक ज्ञानबढै।। तीर्थ:
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभगन्ध दशोंकर, पावक में धर, धूप मनोहर खेवत हैं।
सब पाप जलावे, पुण्य कमावे, दास कहावेसेवत हैं।। तीर्थ:
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै धूपम निर्वपामीति स्वाहा।
बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी ल्यावत हैं।
मन वांछित दाता, मेट असाता, तुम गुन माता, ध्यावत हैं।तीर्थ:
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै फलम निर्वपामीति स्वाहा।
नयनन सुखकारी, मृदुगुनधारी, उज्ज्वलभारी, मोलधरै।
शुभगन्धसम्हारा, वसनिनहारा, तुम अन धारा ज्ञान करै।।तीर्थ:
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
जलचन्दन क्षअत, फूल चरु , चत, दीप धूप अति फल लावै।
पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत सुखपावै।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।।
जयमाला (सोरठा)
ओंकार ध्वनिसार, द्वादशांगवाणी विमल।
नमों भक्ति उर धार, ज्ञान करै जडता हरै।।
पहलो आचारांग बखानो, पद अष्टादश सहस प्रमानो।
दूजो सुत्रकृतं अभिलाषं, पद छत्तीस सहस बयालिस पदसरधानम्।
तीजो ठानाअंग सुजानं, सहस बयालिस पदसरधानम्।
चौथो समवायांग निहारं, चौसठ सहस लाख इकधारम
पंचम व्याख्याप्रज्ञप्ति विसतारं, दोय लाख अट्ठाइस सहसं।
छट्ठो ज्ञातृकथा विसतारं, पाँच लाख छप्पन हज्जारं।।
सप्तम उपासकाध्ययनंगं, सत्तर सहस ग्यारलख भंगं।
अष्टम अंतकृत दस ईसं, सहस अट्ठाइस लाख तेइसं।।
नवमअनुत्तरदश सुविशालं, लाख बानवै सहस चवालं।
दशम प्श्नव्याकरण विचारं, लाख तिरानव सोल हजारं।।
ग्यारम सूत्रविपाक सुभाखं, एक कोड चौरासी लाखं।
चारकोडि अरु पंद्रह लाखं, दो हजार सब पद गुरु शाखं।।
द्वादश दृष्टि वाद पनभेदं, इकसौ आठ कोडि पंवेदं।
अडसठ लाख सहस छप्पन हैं, सहित पंचपद मिथ्या हन हैं।।
इक सौ बारह कोडि बखानो, लाख तिरासी उपर जानो।
ठावन सहस पंच अधिकाने, द्वादश अंग सर्वपद माने।।
कोडि इकावन आठ ही लाखं, सहस चुरासी छहसौ भाखं।
साढे इकीस श्लोक बताये, एक एक पद के ये गाये।।
धत्ता।
जा बानी के ज्ञात तै, सूझे लोक अलोक।
‘‘द्यानत’’ जग जयवंत हो, सदा देत हों धोक।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै महार्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।।
महावीराष्टक-स्तोत्रम
(कविवर भागचन्द्र)
शिखिरणी छन्द
यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचित:,
समंभांतिधैव्य-व्यय-जनि-लसंतोंत-रहिता:।
जगत-साक्षी-मार्ग-प्राकटन-परो भानुरिव यो,
महावीरस्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।।
अताम्रं यच्चक्षु: कमल-युगलं-स्पन्द-रहितम,
जनान कोपापायं प्रकटयति वाभ्यंतरमपि।
स्फुटं मूर्ति-र्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।
नमन नाकेन्द्राली-मुकुट-मनि-भा-जाल-जटि-लम
लसत पादाम्भोज-द्वयमिह यदीयं तनुभृताम्।
भवज्जवाला-शांत्यैप्रभवति जलम वा स्मृतमपि,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।
यदर्चा-भावेन प्रमुदित-मना दर्दुर इह,
क्षणादासीत स्वर्गी गुण-गणसमृद्ध: सुखिनधि:।
लभंते सद्भक्ता: शिव-सुख-समाजं किमु तदा,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।
कनत स्वर्णाभासोप्यपगत-तनु-ज्ञान-निवहो,
विचित्रात्माप्येकोनृपति-वर-सिद्धार्थ-तनय:।
अजन्मापि श्रीमान विगत-भव-रागोद्भुत-गति:,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।
यदीया वाग्गंगा विविध-नय-कल्लोल-विमला,
बृहज्ज्ञानाम्भोभि-र्ज्गति जनतां या स्नपयति।
इदानी-मप्येषा बुध-जन-मरालै: परिचिता,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।
अनिर्वारोद्रेक-स्त्रिभुवन-जयी काम-सुभट:
कुमारावस्थायामपि निज-बलाद्येन विजित:।
स्फुरन नित्यानन्द-प्रशम-पद-राज्याय स जिन:,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।
महा-मोहांतक-प्रशमन-पराकस्मिक-भिषग,
निरापेक्षो बन्धु-विर्दित-महिमा मंगल-कर:।
शरण्य: साधूनां भव-भय-भूआ-मुत्तम-गुणो,
महावीर स्वामी नयनपथ-गामी भवतु मे।
महावीराष्टकं स्त्रोत्रं भक्त या ‘भागेन्दु’ ना कृतम्।
य: पठेच्छूणुयाच्चापि, स याति परमां गतिम्।।
जिनवाणी माता की आरती
जय अम्बे वाणी,माता जय अम्बे वाणी।
तुमको निश दिन ध्यावत सुर नर मुनि ज्ञानी।।
श्री जिन गिरते निकसी, गुर गौतम वाणी।
जीवन भ्रम तुम नाशन्दीपक दरशाणी।। जय..
कुमत कुलाचल चूरण, वज्रसु सरधानी।
नय नियोग निक्षेपण देखन, दरशाणी।। जय..
पातक पंक पखालन, पुण्य पाणी।
मोह महार्णव डूबत, तारण नौकाणी।। जय..
लोकालोक निहारण, दिव्य नेत्र स्थानी।
निज पर भेद दिखावन, सूरज किरणानी।। जय..
श्रावक मुनिगण जननी, तुमही गुणखानी।
सेवक लख दुखदायक, पावन परमाणी।। जय..
श्री महावीर स्वामी की आरती
जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।
कुण्डलपुर अवतारी, त्रिशलानन्द विभो।। ऊँ जय महावीर..
सिद्धार्थ घर जन्मे, वैभवथा भारी।
बाल ब्रह्मचारी व्रत पाल्यौ, तपधारी।। ऊँ जय महावीर..
आतम ज्ञान विरागी, सम दृष्टिधारी।
माया मोह विनाशक, ज्ञान ज्योतिजारी।। ऊँ जय महावीर..
जग में पाठ अहिंसा, आपहि विस्तार्यौ।
हिंसा पाप मिटा कर, सुधर्म परचारयौ।। ऊँ जय महावीर..
यहि विधि चाँदनपुर में,अतिशय दशर्यौ।
ग्वाल मनोरथ पूर्यो, दूध गाय पायौ।। ऊँ जय महावीर..
प्राणदान मंत्री को, तुमने प्रभु दीना।
मन्दिर तीन शिखर का निर्मिंत है कीना।। ऊँ जय महावीर..
जयपुर नृप भी तेरे, अतिशय के सेवी।
एक ग्राम तिन दीनों, सेवा हित यह भी।। ऊँ जय महावीर..
जो कोइ तेरे दर पर इच्छा कर आवे।
धन, सुत सब कुछ पावे संकट मिट जावे।। ऊँ जय महावीर..
निश दिन प्रभु मन्दिर में जगमग ज्योति करै।
हरिप्रसाद चरणों में, आनन्द मोद भरैं।। ऊँ जय महावीर..