आजकल लोग स्वाध्याय कम व पूजन अधिक करते हैं।पूजन में दो धण्टे लगाकर अपने आप को धर्मात्मा समझते हैं व स्वाध्याय 5 मिनट करते हैं।
अरे भाई! जरा विचार तो करो कि हमारा प्रयोजन क्या है व वह प्रयोजन कैसे पूर्ण हो सकता है।
हमारा प्रयोजन सुखी होना है व वह सुख निजपर का भेद ज्ञान करने पर ही मिलेगा उसके लिए हमें जिनेन्द्र भगवान की वाणी सुनकर,पढकर उस पर चिन्तन करना होगा।तभी हमारा प्रयोजन पूर्ण हो सकता है।
पूजन व स्वाध्याय में क्या अंतर है,प्रस्तुत है:
१. पूजन में हम अपने दुःखों को भगवान को बताते हैं,स्वाध्याय में हमें उन दु:खों से छूटने का उपाय मिलता है।
२. पूजन में हम जो बताते है वह जिनेन्द्र देव को पहले से ही पता है,लेकिन स्वाध्याय में हमें वह जानने को मिलता है जिसका हमें आज तक पता ही नहीं हैं।
३. पूजन में रोजाना वही बात दोहरायी जाती है लेकिन स्वाध्याय में हमें रोजाना नयी बात सीखने को मिलती है।
४. पूजन में हम भगवान की भक्ति,गुणगान करते हैं लेकिन स्वाध्याय में भगवान हमें बताते हैं कि ये सब गुण तुझमें ही है तू उनको पहचान।
५. बिना स्वाध्याय किये केवल पूजन करने से कुछ भला नहीं होने वाला जबकि थोड़ी पूजन व बहुत स्वाध्याय करने से निश्चित ही हमारा भला होगा।
यथार्थ से देखा जाये तो दोनों में स्वाध्याय ही श्रेष्ठ है।
लेकिन हम मंदबुद्धियों का उपयोग हमेंशा स्वाध्याय में नहीं टिक पाता है तो मंद कषाय रखने हेतु पूजन की जाती है।
“पर के गुण ही गाये अबतक,निज का अध्ययन नहीं किया।
आचार्यों ने ग्रंथ रचे हैं,उन पर चिन्तन नहीं किया।।
महाभाग्य से जिनकुल पाया,जिनवाणी का श्रवण मिला।
चिन्तन मनन निज का कर अब,सिद्धपुरी का पथ है मिला।।