पर्व ,त्यौहार ,उत्सव हमारे जीवन में ख़ुशी का माहौल लाते हैं उन दिनों हम उसके अनुसार आमोद- प्रमोद करते हैं और उस दिन की खूबियों को अपने जीवन में उतारने का ,स्मरण करते हैं और मनोरंजन कर दिन व्यतीत करते हैं। जैन धर्म में भादो शुक्ल पंचमी से भादों शुक्ल चतुर्दशी तक दस दिनों धर्म( २३ अगस्त से १ सेप्टेम्बर २०२०) और उनके लक्षणों पर चिंतन ,मनन और धर्माराधना करते हैं।
धर्म क्या हैं —
पवित्री क्रियते येन येनैवोदरध्रियते जगत।
नमस्तस्मै दयादृर्य धर्मकल्पांगध्रिपाय वै ।।
जो जगत को पवित्र करे ,संसार के दुखी प्राणियों का उद्धार करे ,उसे धर्म कहते हैं। वह धर्म दया- मूलक हैं और कल्पवृक्ष के समान प्राणियों को मनोवांछित सुख देता हैं :ऐसे धर्म रूप कल्पवृक्ष के लिए मेरा नमस्कार हैं।
मोह और क्षोभ रहित आत्मा के समभाव को या प्रशांत परिणाम को धर्म कहते हैं। मोह का अभिप्राय राग का और क्षोभ से द्वेष का अभिप्राय हैं। इसलिए महर्षियों ने राग द्वेष को मोह-सम्राट के दो सेनापति या संसार रूप भवन के आधार -बहुत प्रधान स्तम्भ कहा हैं। जो जीव रागद्वेष से छूटना चाहते हैं और धर्म को धारण करना चाहते हैं उन्हें सबसे पहले आत्म-स्वरुप का जानना आवश्यक हैं क्योकि आत्म-स्वरूप के जाने बिना दुखों से या राग द्वेष से मुक्ति मिलना संभव नहीं हैं।
जैन दर्शन में दस धर्म बताये गए हैं —
उत्तमक्षमामार्दव्आर्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाअकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः।
उत्तम क्षमा -मार्दव -आर्जव – शौच — सत्य — संयम -तप -त्याग –आकिंचन्य –ब्रह्मचर्य हे धर्म हैं।
उत्तम क्षमा धर्म
हर व्यक्ति क्रोध से भलीभांति परिचित हैं। कोई किसी भी बात पर क्रोधित हो जाता हैं ,किसी बात की पूर्ती न होने पर क्रोध आ जाता हैं। क्रोध उस माचिस की काड़ी की तरह होती हैं जो पहले स्वयं जलती हैं और उसके बाद दूसरे को जलाती हैं ,दूसरा जले या न जले पर काड़ी जल कर राख हो जाती हैं। क्रोध एक क्षणिक आवेग होता हैं और कोई भी व्यक्ति २४ घंटे क्रोधमय नहीं रह सकता हैं। क्रोध को क्रोधाग्नि भी कहते हैं। एक क्षण की भूल जिंदगी भर के लिए गुनहगार बना देती हैं। जैन दर्शन में उत्तम क्षमा को बहुत प्राथमिकता दी जाती हैं और उत्तम क्षमा एक पर्व के रूप में मनाया जाता हैं।
क्रोध की उतपत्ति के निमित्त भूत असहय आक्रोशादी के संभव होने पर भी कालुष्य भाव का नहीं होना क्षमा हैं। क्रोध के उतपन्न होने के साक्षात बाहिरी कारण मिलने पर भी जो थोड़ा सा भी क्रोध नहीं करता हैं उसके व्यवहार उत्तम क्षमा होता हैं। बिना कारण अप्रिय बोलने वाले मिथ्यादृष्टि को बिना कारण मुझे त्रास देने का उद्योग वर्तता हैं ,वह मेरे पुण्य से दूर हुआ —- ऐसा विचार कर क्षमा करना वह प्रथम क्षमा हैं। मुझे बिना कारण त्रास देने वाले को ताडन और वध का परिणाम वर्तता हैं ,वह मेरे सुकृत से दूर हुआ ऐसा विचार कर क्षम्य करना वह द्वितीय क्षमा हैं।
शरीर यात्रा के निमित्त भिक्षा के लिए घर -घर में भ्रमण करते हुए भिक्षु को दुष्टजनों के द्वारा कृत आक्रोश ,हंसी ,अवज्ञा ,ताड़न, शरीरच्छेद आदि क्रोध के असहय निमित्त मिलने पर भी कलुषता का न होना उत्तम क्षमा हैं। देव ,मनुष्य त्रियंचों के द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी जो मुनि क्रोध से संतप्त नहीं होते ,उसके निर्मल क्षमा होती हैं। वध होने से अमूर्त परमब्रह्मरूप ऐसे मुझे हानि नहीं होती –ऐसा समझकर परमसमरसी भाव में स्थित रहना वह (निश्चय ) से उत्तम क्षमा हैं। अज्ञानीजनो के द्वारा शारीरिक बाधा ,अपशब्दों का प्रयोग ,हास्य ,एवं और भी अप्रिय कार्यों के किये पर जो निर्मल विपुल ज्ञानधारी साधु का मन क्रोधादि विकार को प्राप्त नहीं होता हैं ,उसे उत्तम क्षमा कहते हैं।
जो मुनि आशीर्विष रिद्धि ,दृष्टिविष रिद्धि आदि अनेक ऋद्धियों के कारण समर्थ होने पर भी केवल कर्मों का नाश करने के लिए दुष्टों के द्वारा किये गए प्राणों का नाश करने वाले घोर उपसर्गों को भी सहन करते हैं ,उन महात्माओं के धर्मरत्न की खानि उत्तम क्षमा होता हैं। क्रोध उतपन्न होने के सख़त बाहरी कारण मिलने पर भी जो थोड़ा क्रोध नहीं करते उनके उत्तम क्षमा होता हैं।
उत्तम क्षमा की महिमा —
दूसरे लोग तुम्हे हानि पहुचायें उसके लिए तुम उन्हें क्षमा कर दो ,और यदि तुम उसे भुला सको तो यह और भी अच्छा हैं। उपवास करके तपश्चर्या करने वाले निःसंदेह महान हैं ,पर उनका स्थान उन लोगों के पश्चात ही हैं जो अपनी निंदा करने वालों को क्षमा कर देते हैं। जो मुनीश्वर क्रोध के अभाव रूप क्षमा करि मंडित हैं सो मुनि समस्त पाप को क्षय करे बहुरि विद्याधर देव मनुष्यकरि प्रशंसा करने योग्य निश्चय करि होय हैं। अपना अपराध करने वालों का शीघ्र ही प्रतिकार करने में समर्थ रहते हुए भी जो पुरुष अपने उन अपराधियों के प्रति उत्तम क्षमा धारण करता हैं उसको क्षमारूपी अमृत का समीचीनता सेवन करने योग्य साधु जन पापों को नष्ट कर देने वाले समझते हैं।
क्षमा किस प्रकार धारण करनी चाहिए —-
क्षमा के गुण एवं क्रोध के दोषों का विचार करके उत्तम क्षमा धारण करनी चाहिए। अथवा पर के द्वारा प्रयुक्त गाली आदि क्रोध निमित्त का अपनी आत्मा में भाव -अभाव का चिंतन करना चाहिए कि ये दोष मुझमे विद्यमान हैं ही ,यह क्या मिथ्या कहता हैं ?ऐसा विचार कर गाली देने वाले को क्षमा कर देना चाहिए। यदि ये दोष अपने मन में नहीं हैं तो यह दोष मुझमे नहीं हैं ,अज्ञान के कारण यह बेचारा ऐसा कहता हैं इस प्रकार अभाव का चिंतन करके क्षमा कर देना चाहिए।
उत्तम क्षमा के पालनार्थ विशेष भावनाएं —
मैंने इसका अपराध किया नहीं तो भी यह पुरुष मेरे पर क्रोध कर रहा हैं ,गाली दे रहा हैं ,मैं तो निरपराधी हूँ ऐसा विचार कर उसके ऊपर क्षमा करनी चाहिए। इसमें मेरे असददोष का कथन किया तो मेरी इसमें कुछ भी हानि नहीं हैं अथवा क्रोध करने पर दया करनी चाहिए ,क्योकि दीन पुरुष असत्य दोषों का कथन करके व्यर्थ ही पाप का उपार्जन कर रहा हैं। यह पाप उसको अनेक दुखों को देने वाला होगा।
इसने मेरे को गाली ही दी हैं ,इसने इसने मुझे पीटा तो नहीं हैं अर्थात न मारना यह इसमें महान गुण हैं । इसने गाली दी हैं परन्तु गाली देने से मेरा तो कुछ भी नुक्सान नहीं हुआ अतः इसके ऊपर क्षमा करना ही मेरे लिए उचित हैं ऐसा विचार कर क्षमा करनी चाहिए। इसने मेरे को केवल ताडन ही किया ,मेरा वध तो नहीं किया हैं ,यह इसने मेरा उपकार किया ऐसा मानकर क्षमा करना योग्य हैं।
ऋण चुकाने के समय जिस प्रकार अवश्य साहूकार का धन वापस देना चाहिए उसी प्रकार पूर्वजन्म में पापोपार्जन किया था अब यह मेरे को दुःख दे रहा हैं यह योग्य ही हैं। यदि मैं इसे शांत भाव से सहन करूँगा तो पाप ऋण से रहित होकर सुखी होऊंगा। ऐसा विचार कर रोष नहीं करना चाहिए।
क्षमा के कौन— कौन से गुण हैं —
व्रत -शील का रक्षण ,इहलोक -परलोक में दुःख नहीं होना ,सर्वजगत में सम्मान और सत्कार प्राप्त होना ,आदि क्षमा के गुण हैं। —
1 क्षमा मोह को वश करने करने वाली ,ऐसी मोक्ष कि सखी हैं।
2 मनुष्यों को इच्छित सुख देने वाली ,कल्पलता के समान हैं।
3 मनुष्यों कि शत्रुओं से रक्षा करने वाली यह क्षमा ही सबसे उत्तम हैं।
4 यह उपशम कि माता ,सबमे सारभूत ,,शुभकारिका तथा धर्मरूप रत्नों कि खानि हैं।
5 भगवान पार्श्वनाथ स्वामी ,संजयंत एवं शिवभूति मुनि ने इसे धारण कर शत्रुकृत घोर उपसर्ग को जीतकर केवलज्ञान प्राप्त किया एवं त्रैलोक्य पूज्य शिवालय में जा विराजमान हुए।
6 क्षमा के समान न श्रेष्ट तप हैं ,न हित हैं ,न व्रत हैं और न कोई जीवन ही हैं।
पीड़ें दुष्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करे।
धरिये क्षमा विवेक , कोप न कीजे पीतमा।।
उत्तम क्षमा गहो रे भाई ,यह -भव जस पर भव सुखदाई।
गाली सुन मन खेद न आनो ,गुण को औगुन कहे अयान।।
कहि हैं अयानो वस्तु छीने,बांध मार बहुविधि करे।
घर तें निकारै तन विदारे ,वैर जो न तहाँ करे।।
तैं करम पूरब किये खोटे, सहें क्यों नहीं जीयरा।
अति क्रोध अग्नि बुझाय प्राणी। साम्य –जल ले सीयरा।।
उत्तम क्षमा के भाव सब जीवों में आये यही भावना करता हूँ।
—- डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन