आत्मावलोकन का पर्व चातुर्मास


चातुर्मास का शाब्दिक अर्थ है चार माह। ये चार माह व्यक्ति को संयम और सहिष्णुता की साधना के लिए प्रेरित करते हैं। चातुर्मास का सिर्फ धार्मिक महत्व ही नहीं है, इसके नियम सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी बड़े उपयोगी हैं।

आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तक की अवधि जिसमें विवाह आदि मंगल कार्य वर्जित हैं। देवशयनी एकादशी से चातुर्मास आरंभ होता है और इसका समापन देवउठनी या देवोत्थान एकादशी पर होता हैं। जैन धर्म में चौमासे का बहुत अधिक महत्व हैं। वे सभी पुरे महीने मंदिर जाकर धार्मिक अनुष्ठान करते हैं एवं सत्संग में भाग लेते हैं। घर के छोटे बड़े लोग जैन मंदिर परिसर में एकत्र होकर ना ना प्रकार के धार्मिक कार्य करते हैं। गुरुवरों एवं आचार्यों द्वारा सत्संग किये जाते हैं एवं मनुष्यों को सद्मार्ग दिखाया जाता हैं। इस तरह इसका जैन धर्म में बहुत महत्व है।

साधुचर्या का एक शब्द है- चातुर्मास। चातुर्मास एक पारिभाषिक शब्द है, जो चार महीने की अवधि है, जिसे साधु विधिपूर्वक एक ही स्थान पर बिताते हैं। “चातुर्मास’ शब्द का मूल अर्थ है- “वर्षा-योग’। ग्रामों व नगरों में वर्षा ऋतु में श्रमण, साधु, उपाध्याय व आचार्य एक स्थान पर चार महीने तक व्यतीत करते हैं। अतः इसे चातुर्मास कहते हैं। चातुर्मास आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की पूर्व रात्रि से प्रारंभ होता है और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि तक माना जाता है। चातुर्मास को स्थिर करने को “प्रतिष्ठायन’ कहते हैं। चातुर्मास धार्मिक जगत की धुरी है।

वर्षावास या चातुर्मास का न केवल पर्यावरण व कृषि के दृष्टिकोण से वरन् धार्मिक दृष्टिकोण से भी विशेष महत्व है। वर्षा ऋतु में जीवोत्पत्ति विशेष रूप से हो जाती है। पानी के सम्पर्क में आकर भूमि में दबे बीज अंकुरित हो जाते हैं। सीलन, फलन, फफूंद, काई की उत्पत्ति हो जाती है। त्रस व स्थावर जीवों की अधिकता के कारण उनकी विराधना की संभावना अधिक हो जाती है। जगह-जगह जल एकत्रित हो जाने से एक गांव से दूसरे गांव या शहर तक पगडण्डी द्वारा विहार संभव नहीं हो पाता है। आगम शास्त्रों में भी स्पष्ट निर्देश हैं कि चातुर्मास के दौरान साधु-साध्वियों को विहार नहीं करना चाहिए। चातुर्मास का संयोग हमारी मनःस्थिति में भरे विभिन्न प्रदूषणों को समाप्त करने के साथ ही दुष्प्रवृत्तियों को सत्य वृत्तियों में बदलने का कार्य करता है।

चिंतन में सत्प्रवृत्तियों का समावेश हो जाता है तो चरित्र में आदर्शवाद के प्रति अगाध निष्ठा उत्पन्न हो जाती है। गुरु के दिशा-दर्शन के फलस्वरूप सभी लोगों में धर्म का भाव होता है, निष्ठा होती है, श्रद्घा, समर्पण का भाव होता है। हमें हमारी संस्कृति प्रवृत्ति को, उसकी उपलब्धियों और संभावनाओं को समझकर उनके गुणों को आत्मसात करना होगा, क्योंकि हमारी परम्परा में ही हमारा जीवन-प्रवाह बना रहता है। मानव शरीर को धर्म का प्रथम साधन माना गया है। शरीर को धर्माचरण में लगाकर जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। शरीर अन्तरात्मा का सुन्दर मन्दिर है, जब शरीर के साथ हमारे भाव और विचार अच्छे हो जाएं तो यह जीवन सार्थक बन जाएगा।

धन के वैभव से हम समृद्घि के द्वार तक पहुंच गए, किन्तु मन, वचन, काया से बहुत गरीब हो गए हैं। आधुनिक भौतिकवाद की चकाचौंध के बीच हम अपने वास्तविक आस्तत्व को भूल गए हैं, जिसने हमारे नैसर्गिक सृजन का पक्षाघात कर दिया है। धन के अनुचित संग्रह से आत्मा में मलिनता आती है। “धन’ समुद्र का “खारा पानी’ है, जितना हम उसको पीते हैं, उतनी ही प्यास बढ़ती जाती है। धन को धर्म के साथ जोड़कर हम आत्मीय रूप से धनवान बन सकते हैं।

“चातुर्मास’ धन और धर्म दोनों के द्वारा हमें उपलब्धियां प्रदान कर सकता है। धन-समृद्घि के दर्शन तो हम करते हैं किन्तु आत्मा के वैभव के दर्शन कराने में चातुर्मास हमें बहुत बड़ा योगदान प्रदान कर सकता है। चातुर्मास काल में त्याग, वैभव, तप, व्रत और संयम का सागर लहराने लगे, ऐसा सामूहिक प्रयत्न होना चाहिए। हम साधना व आराधना के महत्वपूर्ण बिन्दुओं की उपेक्षा करते हैं। हमारी जीवन-शैली अहिंसा से प्रभावित हो। हम जितना अधिक संयम का अभ्यास करेंगे, उतना ही अहिंसा का विकास होगा। भगवान महावीर ने चातुर्मास काल में जिनवाणी द्वारा जीने की कला से विश्र्व को अवगत कराया है। अगर उसके अनुरूप हम चलें तो निश्र्चित ही यशस्वी मानव बन सकते हैं। जप, तप, सत्संग आदि में समर्पित भाव से सहभागी बनने से ही चातुर्मास की विशेषता अक्षुण्ण रहेगी।

चातुर्मास और हमारा कर्त्तव्यः
चातुर्मास अवधि के दौरान साधु-साध्वियों को विहार नहीं करना चाहिए। एक ही स्थान पर निवास करने से वहां के संघ के संतों के प्रति व स्वयं के प्रति कुछ कर्त्तव्य होते हैं, जिनका निर्वहन हमें करना होता है। अपने गांव या नगर में चातुर्मास की स्वीकृति की जय बोलने मात्र से कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। सन्तों के चातुर्मास के दौरान सेवा, बीमार, वृद्घ-सन्तों की सेवा करना श्रावक-श्राविकाओं का कर्तव्य होता है। संतों के आहार, पानी, स्वास्थ्य, स्वाध्याय व अन्य अनुकूलताओं को ध्यान में रखते हुए, सेवा करना जरूरी समझें।

समय की कमी होने पर एक दिन में एक बार तो दर्शन अवश्य करें। साधर्मी भक्ति का लाभ अवश्य लें। संत-दर्शन के लिए पधारें, अतिथियों के स्वागत-सत्कार को परम धर्म समझें। जरूरी नहीं कि चातुर्मास में मासक्षमण अट्ठाई, अट्ठमतप या अन्य कोई तप किए जाएं। अपनी सामर्थ्य के अनुसार छोटे-छोटे तप भी किए जा सकते हैं। नवकारसी, रात्रि-भोजन त्याग, जमीकंद त्याग, पत्तेदार सब्जियों का त्याग जैसे पच्चखाण तो अवश्य ग्रहण करें। तप, धर्म साधना करने वालों को प्रोत्साहन दें। ज्ञान सीखने वालों को शिक्षण-सामग्री उपलब्ध करवाएं। प्रवचन में प्रभावना बंटवाने की अपेक्षा उन रुपयों को गरीब बेरोजगारों पर खर्च किया जाए, तो ज्यादा बेहतर होगा। इसी सन्दर्भ में पूज्य साधु-साध्वियों के मार्गदर्शन की विशेष आवश्यकता रहती है।

चातुर्मास के दौरान श्रावक जितना तप-त्याग करें, राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ, मोह-मद का त्याग करें, दानशीलता की प्रवृत्ति रखें व भावना रखें, तो धर्म की आराधना सही रूप से हो सकेगी। इस दौरान फर्श या भूमि पर ही सोते हैं। इस दौरान राजसिक और तामसिक खाद्य पदार्थों का त्याग कर देते हैं। चार माह ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। प्रतिदिन अच्‍छे से स्नान करते हैं। उषाकाल में उठते हैं और रात्रि में जल्दी सो जाते हैं। यथा शक्ति दान करते हैं।

इस व्रत में दूध, शकर, दही, तेल, बैंगन, पत्तेदार सब्जियां, नमकीन या मसालेदार भोजन, मिठाई, सुपारी, मांस और मदिरा का सेवन नहीं किया जाता। श्रावण में पत्तेदार सब्जियां यथा पालक, साग इत्यादि, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध, कार्तिक में प्याज, लहसुन और उड़द की दाल आदि का त्याग कर दिया जाता है।

— डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन


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