भारतीय संस्कृति में पर्व, त्याहारों और व्रतों का अपना एक अलग महत्व है। ये हमें हमारी सांस्कृतिक परंपरा से जहां जोड़ते हैं वहीं हमारे आत्मकल्याण में भी कार्यकारी होते हैं। अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है। इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है।यह तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है।
अक्षय तृतीया का दिन अपने आप में कई गाथाओं को समेंटे हुए है। यह दिन अन्य दिनों से बहुत खास रहता है।जैन परंपरा में भी इसका खास महत्त्व है। इस दिन जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ ) ने राजा श्रेयांस के यहां इक्षु रस का आहार लिया था, जिस दिन तीर्थंकर ऋषभदेव का आहार हुआ था, उस दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। उस दिन राजा श्रेयांस के यहां भोजन, अक्षीण (कभी खत्म न होने वाला ) हो गया था। अतः आज भी लोग इसे अक्षय तृतीया कहते हैं। जैनधर्म के अनुसार इसी दिन से आहार दान की परम्परा शुरू हुई। ऐसी मान्यता है कि मुनि का आहार देने वाला इसी पर्याय से या तीसरी पर्याय से मोक्ष प्राप्त करता है। राजा श्रेयांस ने भगवान आदिनाथ को आहारदान देकर अक्षय पुण्य प्राप्त किया था, अतः यह तिथि अक्षय तृतीया के रूप में मानी जाती है। यह दिन बहुत ही शुभ होता है, इस दिन बिना मुर्हूत निकाले शुभ कार्य संपन्न होते हैं।
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत से दक्षिण की ओर मध्य आर्यखण्ड में कुलकरों में अंतिम कुलकर नाभिराज हुए। उनके मरूदेवी नाम की पट्टरानी थी। रानी के गर्भ में जब जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आये तब गर्भकल्याणक उत्सव देवों ने बडे़ ठाठ से मनाया और जन्म होने पर जन्म कल्याणक मनाया। फिर दीक्षा कल्याणक होने के बाद ऋषभदेव ने छःमाह तक घोर तपस्या की। छः माह के बाद चर्या (आहार) विधि के लिए ऋषभदेव भगवान ने अनेक ग्राम नगर शहर में विहार किया, किन्तु जनता व राजा लोगों को आहार की विधि मालूम न होने के कारण भगवान को धन, कन्या, पैसा, सवारी आदि अनेक वस्तु भेंट की। भगवान ने यह सब अंतराय का कारण जानकर पुनः वन में पहुंच छःमाह की तपश्चरण योग धारण कर लिया।
अवधि पूर्ण होने के बाद पारणा करने के लिए चर्या मार्ग से ईर्यापथ शुद्धि करते हुए ग्राम, नगर में भ्रमण करते-करते कुरूजांगल नामक देश में पधारे। वहां हस्तिनापुर में कुरूवंश के शिरोमणि महाराज सोम राज्य करते थे। उनके श्रेयांस नाम का एक भाई था उसने सर्वार्थसिद्धि नामक स्थान से चयकर यहां जन्म लिया था।
एक दिन रात्रि के समय सोते हुए उसे रात्रि के आखिरी भाग में कुछ स्वप्न आये। उन स्वप्नों में मंदिर, कल्पवृक्ष, सिंह, वृषभ, चंद्र, सूर्य, समुद्र, आग, मंगल द्रव्य यह अपने राजमहल के समक्ष स्थित हैं ऐसा उस स्वप्न में देखा तदनंतर प्रभात बेला में उठकर उक्त स्वप्न अपने जेष्ठ भ्राता से कहे, तब ज्येष्ठ भ्राता सोमप्रभ ने अपने विद्वान पुरोहित को बुलाकर स्वप्नों का फल पूछा। पुरोहित ने जबाव दिया- हे राजन! आपके घर श्री ऋषभदेव भगवान पारणा के लिए पधारेंगे, इससे सबको आनंद हुआ।
इधर भगवान ऋषभदेव आहार (भोजन) हेतु ईर्या समितिपूर्वक भ्रमण करते हुए उस नगर के राजमहल के सामने पधारे तब सिद्धार्थ नाम का कल्पवृक्ष की मानो अपने सामने आया है, ऐसा सबको भास हुआ। राजा श्रेयांस को भगवान ऋषभदेव का श्रीमुख देखते ही उसी क्षण अपने पूर्वभव में श्रीमती वज्रसंघ की अवस्था में एक सरोवर के किनारे दो चारण मुनियों को आहार दिया था-उसका जाति स्मरण हो गया। अतः आहारदान की समस्त विधि जानकर श्री ऋषभदेव भगवान को तीन प्रदक्षिणा देकर पड़गाहन किया व भोजन गृह में ले गये।
‘प्रथम दान विधि कर्ता’ ऐसा वह दाता श्रेयांस राजा और उनकी धर्मपत्नी सुमतीदेवी व ज्येष्ठ बंधु सोमप्रभ राजा अपनी लक्ष्मीपती आदि ने मिलकर श्री भगवान ऋषभदेव को सुवर्ण कलशों द्वारा तीन खण्डी (बंगाली तोल) इक्षुरस (गन्ना का रस) तो अंजुल में होकर निकल गया और दो खण्डी रस पेट में गया।
इस प्रकार भगवान ऋषभदेव की आहारचर्या निरन्तराय संपन्न हुई। इस कारण उसी वक्त स्वर्ग के देवों ने अत्यंत हर्षित होकर पंचाश्चर्य (रत्नवृष्टि, गंधोदक वृष्टि, देव दुदभि, बाजों का बजना व जय-जयकार शब्द होना) वृष्टि हुई और सभी ने मिलकर अत्यंत प्रसन्नता मनाई।
आहारचर्या करके वापस जाते हुए ऋषभदेव भगवान ने सब दाताओं को ‘अक्षय दानस्तु’ अर्थात् दान इसी प्रकार कायम रहे, इस आशय का आशीर्वाद दिया, यह आहार वैशाख सुदी तीज को सम्पन्न हुआ था।
जब ऋषभदेव निरंतराय आहार करके वापस विहार कर गए उसी समय से अक्षय तीज नाम का पुण्य दिवस (जैनधर्म के अनुसार) का शुभारंभ हुआ। इसको आखा तीज भी कहते हैं। यह दिन हिन्दू धर्म में बहुत पवित्र माना जाता है। इस दिन अनबूझा मुर्हूत मानकर शादी, विवाह एवं मंगलकार्य प्रचुर मात्रा में होते हैं।
जैनधर्म में दान का प्रवर्तन इसी तिथि से माना जाता है, क्योंकि इससे पूर्व दान की विधि किसी को मालूम नहीं थी। अतः अक्षय तृतीया के इस पावन पर्व को देश भर के जैन श्रद्धालु हर्षोल्लास व अपूर्व श्रद्धा भक्ति से मनाते हैं। इस दिन हस्तिनापुर में भी विशाल आयोजन किया जाता है। इस दिन व्रत, उपवास रखकर इस पर्व के प्रति अपनी प्रगाढ आस्था दिखाते हैं।
कोरोना महामारी के चलते ऐसे सार्थक करें अक्षय तृतीया पर्व:-
पूरे विश्व इस समय कोरोना महामारी से जूझ रहा है। भारत में इस महामारी के कारण लॉकडाउन चल रहा है, इसी लॉक डाउन के बीच 26 अप्रैल को अक्षय तृतीया का पर्व है। लॉक डाउन के कारण सभी धार्मिक, सांस्कृतिक आयोजन बन्द हैं, मंदिरों में तालाबंदी हैं ऐसे में हम अक्षय तृतीया पर कोई भी अनुष्ठान मंदिर आदि में नहीं कर सकते हैं।
इसलिए अक्षय तृतीया को मनाने की पूजा, अनुष्ठान आदि की जो विधि बतलाई है उसे अपने घर में ही सम्पन्न करें। शास्त्रों में बताया गया है कि अक्षय तृतीया के पावन दिन दान करने का बहुत अधिक महत्व होता है। इस तिथि पर दान करना शुभ माना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार दान करने का कई गुना फल मिलता है। इस पर्व पर हमें अपनी उदारता दिखाने का अच्छा अवसर मिला है। पूरा देश जब कोरोना महामारी से संघर्ष कर रहा है तो इस पर्व पर हमें दिल खोलकर दान देना चाहिए। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री राहत कोष में दान करें जिससे जरूरतमदों को सहायता पहुँचाने में सरकार के हाथ मजबूत हो सकें। अपने आस-पड़ोस के जरूरतमंद की मदद के लिए जरूर आगे आएं, सही मायने में अक्षय तृतीया जैसे पर्व को सार्थकता प्रदान करने का इससे अच्छा कोई दूसरा अवसर हो नहीं सकता। किसी भूखे को भोजन, कपड़े, दवाई आदि की सहायता कर मददगार बनें। आप जहाँ रहते हैं वहां अपने साधर्मी भाई,आप अपने आसपास या जिस गाँव, नगर में रहते हैं वहां आप जरूरतमंद तक आप अपनी मदद जरूर पहुंचाएं ताकि इस संकटकाल से किसी को कोई परेशानी न उठाना पड़े। इस दिन अपनी क्षमता के अनुसार दान अवश्य करें। अक्षय तृतीया पर्व दान के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त है तो इसबार ‘जियो और जीने दो’ को सार्थक करते हुए ‘जान भी और जहान भी ‘ को हम दान देकर एक नई इबारत लिख सकते हैं।
अक्षय तृतीया व्रत, विधि एवं मंत्र:-
कोरोना महामारी के चलते लॉक डाउन चल रहा है, इसलिए अक्षय तृतीया पर पूजा, अनुष्ठान आदि अपने घर पर ही करें।
यह व्रत जैन परम्परा के अनुसार वैशाख सुदी तीज से प्रारम्भ होता है। उस दिन शुद्धतापूर्वक एकाशन करें या 2 उपवास या 3 एकाशन करें।
इसकी विधि यह है कि व्रत की अवधि में प्रातः नैत्यिक क्रिया से निवृत्त होकर शुद्ध भावों से भगवान की दर्शन, स्तुति करें। पश्चात् भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा का धार्मिक टीवी चैनल पर कलशाभिषेक देखें। नित्य नियम पूजा भगवान आदि तीर्थंकर (ऋषभदेव) की पूजा एवं पंचकल्याणक का मण्डल जी मंडवाकर मण्डल जी की पूजा करें। तीनों काल (प्रातः, मध्यान्ह, सांय) निम्नलिखित मंत्र का जाप करें एवं सामायिक करें-
मंत्र – ओम् ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं श्री आदिनाथतीर्थंकराय नमः स्वाहा।
प्रातः सांय णमोकार मंत्र का शुद्धोच्चारण करते हुए जाप करें।
व्रत के समय में गृहादि समस्त क्रियाओं से दूर रहकर स्वाध्याय, भजन, कीर्तन आदि में समय यापन करें। व्रत अवधि में ब्रह्राचर्य से रहें। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का अणुव्रत रूप से त्याग करें। क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों को शमन करें।
व्रत पूर्ण होने पर यथाशक्ति उद्यापन करें। मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान देवें। इस प्रकार शुद्धतापूर्वक विधिवत रूप से व्रत करने से सर्व सुख की प्राप्ति होती है तथा साथ ही क्रम से अक्षय सुख अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।
आरोग्य जीवन बिताने के लिए भी यह उपयोगी है। संयम जीवनयापन करने के लिए इस प्रकार की धार्मिक क्रिया करने से मन को शान्त, विचारों में शुद्धता, धार्मिक प्रवृत्रियों में रुचि और कर्मों को काटने में सहयोग मिलता है। इसी कारण इस अक्षय तृतीया का जैन धर्म में विशेष धार्मिक महत्व समझा जाता है।
ध्यान रहे कोरोना महामारी के चलते लॉक डाउन चल रहा है, इसलिए अक्षय तृतीया पर पूजा, अनुष्ठान आदि अपने घर पर ही करें, मंदिर में नहीं।
-डाॅ0 सुनील जैन ‘संचय’