वर्तमान में अनेक प्रवचनकार दशलक्षण पर्व को पर्युषण पर्व कह कर संबोधित करते हैं। लेख आदि भी लिखते हैं।
इसे गृहीत मिथ्यातत्व का पोषक कहा जा रहा है। यह भी समझाया जा रहा है कि दसलक्षण पर्व को ‘पर्युषण पर्व’ कहना गलत है क्योंकि यह श्वेताम्बर परंपरा में मनाया जाता है। मेरे विचार से इस पर गंभीरता से विचार अपेक्षित है।
यद्यपि श्वेताम्बर परंपरा में यह शब्द ज्यादा प्रचलित है तथा श्वेताम्बर आगमों में इसका उल्लेख भी बहुतायत से मिलता है और व्यवहार से इसी परंपरा के अष्टदिवसीय पर्व को मुख्य रूप से पर्युषणपर्व कहा जाता है और दिगम्बर परंपरा में इसके अनंतर प्रारम्भ होने वाले दस दिवसीय पर्व को दसलक्षण पर्व ही कहा जाता है किन्तु ऐसा विचार भी उचित नहीं है कि इस शब्द (पर्युषण) का उल्लेख ही दिगंबर साहित्य में नहीं है ।
पर्युषण शब्द का अर्थ –
संस्कृत की दृष्टि से पर्युषण का शाब्दिक अर्थ है- परि आ समंतात् उष्यन्ते दह्यन्ते पापकर्ममाणि यस्मिन् तत् पर्युषणम् अर्थात जो आत्मा में रहने वाले कर्मों को सब तरफ से तपाये या जलाए ,वह पर्युषण है ।
इस व्यापक अर्थ से भी दिगम्बर सम्प्रदाय को कोई आपत्ति नहीं है ।क्यों कि दशलक्षण पर्व पर लिखी गई अन्यान्य बड़े बड़े वर्तमान के आचार्यों मुनिराजों और विद्वानों की पुस्तकों में इस शब्द का न सिर्फ अर्थ समझाया गया है बल्कि उनके प्रवचनों में इस शब्द का प्रयोग भी बहुतायत से किया जाता है । अब इस प्रयोग को अज्ञान जन्य कहना भी उचित नहीं लग रहा है।
भगवती आराधना और मूलाचार जो कि दिगम्बर परंपरा के प्रामाणिक आगम हैं उनमें साधुओं के जिनकल्पी और स्थविरकल्पी – ये दो भेद बताये हैं और स्थविरकल्प के दस भेद बताते हुए लिखा है –
आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे।
जेट्ठपडिक्कमणे वि य मासं पज्जोसवणकप्पो।।
(देखें – भगवती आराधना –गाथा ४२३ ,पृष्ठ ३२०,प्रका.जैन संस्कृति संरक्षक संघ ,शोलापुर ,२००६
तथा मूलाचार ,अधिकार-१०,गाथा-१८ )
विजयोदया टीका में लिखा है कि ‘ पज्जोसमणकल्पो नाम दशमः | वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमणत्यागः’ (भ.आरा.विजयो.टीका पृष्ठ ३३३ )
अर्थात् पज्जोसमण (पर्युषणा)नाम का दसवां कल्प है जिसका अभिप्राय है वर्षा काल के चार मासों में भ्रमण त्यागकर एक ही स्थान पर निवास करना | इस हिसाब से देखें तो चातुर्मास को पर्युषण कहते हैं और इस दौरान जो भी पर्व आते हैं उन्हें पर्युषण पर्व कह सकते हैं |
सोलहकारण आदि पर्व भी इसी समय आने से उन्हें भी पर्युषण पर्व कह दिया जाय तो भी आपत्ति नहीं होनी चहिये । पर्युषण काल में आने वाले सभी पर्व पर्युषण पर्व ही हैं।
अतः चूंकि दशलक्षण पर्व भी चातुर्मास में ही आते हैं तो उन्हें पर्युषण पर्व कह दिया जाय तो इतनी बड़ी आफत भी नहीं आती है।
इस प्रकरण में पंडित कैलाशचंद शास्त्री जी ने एक स्पष्टीकरण भी दिया है –
‘प्राकृत में दसवें कल्प का नाम ‘पज्जोसवणा’ है उसका संस्कृत रूप पर्युषणाकल्प है | इसी से भादों के दसलक्षण पर्व को पर्युषण पर्व भी कहते हैं | श्वेताम्बर परंपरा में भी इसका उत्कृष्ट काल आषाढ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक चार मास है |जघन्य काल सत्तर दिन है | भाद्रपद शुक्ला पंचमी से कार्तिक की पूर्णिमा तक सत्तर दिन होते हैं | संभवतः इसी से दिगंबर परंपरा में पर्युषण पर्व भाद्रपदशुक्ला पंचमी से प्रारंभ होते हैं | इस काल में साधु विहार नहीं करते | (देखें – भगवती आराधना पृष्ठ ३३४ )
एक निवेदन यह भी है कि आजकल हम लोग बहुत सी प्रचलित परम्पराओं और अनुष्ठानों तथा पर्वों को लेकर यह कहने लग गए हैं कि यह तो अन्य परंपरा से हमारे यहाँ आई है ,यह हमारी नहीं है | हमें इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए | तथा सोच समझ कर कथन करना चाहिए | हमारा बहुत सा साहित्य नष्ट हो गया है ,किन्तु परंपरा में कई आवश्यक विधान हमारे आचार्यों /विद्वानों ने कुछ सोच समझ कर समाज के हित में प्रारंभ किये थे | हम हर चीज को दूसरों का कह कर यदि दुत्कारते रहेंगे तो एक दिन अपना ही वजूद खो बैठेंगे और हाँ ,आजकल जिस चीज का ज्ञान न हो उसका सही ज्ञान प्राप्त करने की बजाय हर चीज को गृहीत मिथ्यात्व कहने का फैशन भी चल पड़ा है । बिना जांच पड़ताल के हमें कोई भी निर्णय नहीं करना चाहिए ।
अब जिन्हें दशलक्षण कहना है वे कहें ,जिन्हें पर्युषण कहना हैं वे कहें । पर पर्व के दिनों में अपनी कषाय कम जरूर करें और आत्मा की आराधना अवश्य करें । नामों को लेकर व्यर्थ के विवाद न करें और नाम को लेकर एक दूसरे को मिथ्या दृष्टि न कहें।
— प्रो अनेकांत कुमार जैन