धर्मनाथ जी पन्द्रहवें तीर्थंकर हैं। समस्त कर्मों का निर्वाह कर उन्होंने कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की और वर्षों तक जनता में अहिंसा और सत्य का संदेश दिया।
धर्मनाथ जी का जन्म रत्नपुरी के इक्ष्वाकु वंश के राजा भानु की पत्नी माता सुव्रतादेवी के गर्भ से माघ के शुक्ल पक्ष की तृतीया को पुष्य नक्षत्र में हुआ था। धर्मनाथ के यक्ष, यक्षिणी किन्नर और कंदर्पा देवी थे। इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण (सुनहरा) और चिह्न वज्र था।
राजा भानु ने धर्मनाथ जी को राजगद्दी का कार्य भार सौंपा था। धर्मनाथ जी के शासन में अधर्म का नाश हुआ। उन्हें एक प्रिय शासक के रूप में भी याद किया जाता है।
कालान्तर में राजपद का त्याग कर उत्तराधिकारी को सौंपा। माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन श्री धर्मनाथ जी ने प्रवज्या व आत्मसाधना में प्रवेश किया। देव निर्मित नागदत्ता पालकी में बैठकर शालवन के उद्यान में पहुँचे, जहां माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन एक हजार राजाओं के साथ स्वयं दीक्षित हो गये। दो वर्ष की छदमस्थ साधना कर पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्रभु केवली बने साथ ही धर्मतीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर कहलाए। ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन सम्मेद शिखर पर्वत पर प्रभु ने निर्वाण किया।
Heaven | Vijayavimana |
Birthplace | Ratnapuri |
Diksha Place | Samed Shikharji |
Father’s Name | Bhanuraja |
Mother’s Name | Suvrita |
Complexion | golden |
Symbol | thunderbolt |
Height | 45 dhanusha |
Age | 1,000,000 common years |
Tree Diksha or Vat Vriksh | Dadhiparna |
Attendant spirits/ Yaksha | Kinnara |
Yakshini | Manasi |
First Arya | Arishta |
First Aryika | Arthasiva |