यह क्षेत्र पर्याप्त प्राचीन लगता है । यहाँ के कुछ मंदिरों ओर मूर्तियों पर 10 वीं-11वीं शताब्दी की कालचुरी कालीन कला का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । कलचुरी शैली मेँ मंदिर के बहिर्भाग मेँ अलंकरण की प्रधानता रहती थी, द्वार अलंकृत रहते थे । शिखर ऊंचाई भी अधिक रहती थी । पंचायतन शैली को इसी कला मेँ पूर्णता प्राप्त हुई। यह विशेषताएँ यहाँ के कुछ मंदिरों मेँ देखने को मिलती है।
यहाँ की प्रतिमाओ मेँ विघ्नहर पार्श्वनाथ की प्रतिमा अत्यंत भव्य और प्रभावोंत्पादक है । यहाँ की प्रतिमाएँ दोनों ही ध्यानासनों मेँ मिलती है – पद्मासन एवं कायोत्सर्गासन । इन प्रतिमाओंकी चरण-चौकी पर अभिलेख भी उत्कीर्ण हैं। उनके अनुसार यहाँ कुछ प्रतिमाएँ वीं-11वीं शताब्दी की भी उपलब्ध है।
यहाँ की विशेष उल्लेखनीय रचनाओ मे सहस्त्रकूट जिनालय तथा नंदीश्वर द्वीप की रचना है । यह रचनाएँ अपनी विशिष्ट शैली के कारण अत्यंत कलापूर्ण बन पड़ी है। कलाकार के कुशल हाथों के कौशल की छाप इनकी प्रत्येक मूर्ति पर स्पष्ट अंकित है । ऐसी मनोहर रचना कम ही मंदिरों में देखने को मिलेगी।
बहुत वर्षो तक यह तीर्थ अत्यंत उपेक्षित दशा में पड़ा रहा । उस कल में वन्य पशु-पक्षियों ने मंदिरों को अपना सुरक्षित आवास बना लिया था । जंगली लताओं, झड़ियों और इन पशु-पक्षियों ने मंदिरों को दुर्गम और वीरान बना दिया था । मंदिरों की छतें और भित्तियाँ मरम्मत के अभाव मे जीर्ण-शीर्ण हो गई थी । जहां-तहां से वर्षा के पानी अपना मार्ग बना लेता था, किन्तु इधर कुछ वर्षो से पाटन जैन समाज के ध्यान इसकी और आकृष्ट हुआ है और अब यहाँ के मंदिरों की दशा संतोषजनक रूप से सुधरती जा रही है।
इस क्षेत्र की ख्याति एक अतिशय क्षेत्र के रूप में है । यहाँ का गर्भमंदिर दैवी चमत्कारों के लिए विशेष प्रसिद्ध है । शिशिर ऋतु में इस मंदिर में प्रवेश करने पर शीत का अनुभव नहीं होता । विघ्नहर पार्श्वनाथ मंदिर में जैन और जैनेत्तर जनता मनौती मनाने आती है और उनके विश्वास के अनुरूप उनकी मनोकामनाएँ पूर्ण होती है।
यहाँ के नंदीश्वर मंदिर के प्रति जैनाजैन जनता की अत्यधिक श्रद्धा है । यह भी जनश्रुति है की इस मंदिर में अष्टांहिका पर्व में देवगण आकर गीत-नृत्यपूर्वक पूजन किया करते थे और मंदिर में केशर की वर्षा करते थे।
शांति की जैसी अभिलाषा और जिनेन्द्र भक्ति धार्मिक जनो में देखी जाती है, वैसी अनेक देवों में भी होती है, ऐसा माना जाता है । अत: यह अस्वाभाविक नहीं है । निश्चय ही इन तीर्थ भूमियों पर आकर विविध आधी-व्याधियों से व्याकुल प्राणियों को शांति प्राप्त होती है।
क्षेत्र दर्शन:-
क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए विशाल प्रवेश द्वार बना हुआ है और उसके ऊपर नौबतखाना है । क्षेत्र स्थित मंदिरों के चारों ओर अहाता बना हुआ है । यहाँ कुल नौ मंदिर है जिनका विवरण इस प्रकार है।
जीर्णोद्धार कार्य होकर नवीन आकर्षक वेदी का निर्माण हुआ है । फरवरी 1976 में वार्षिक मेला के अवसर पर वेदी प्रतिष्टा। होकर श्री जिनबिंब विराजमान किए गए है। इस मंदिर में तीन आधुनिक और दो प्राचीन प्रतिमाएँ विराजमान है।
मूल नायक श्री नेमिनाथ भगवान की लाल पाषाण (मूंगा वर्ण) की प्रतिमा भव्य एवं चित्ताकर्षक है । एक फुट आठ इंच ऊंचे एक सिला स्तम्भ में तीर्थंकर मूर्तियाँ है जो प्राचीन है। एक पद्मासन प्राचीन प्रतिमा है। जो 1 फुट 5 इंच ऊंची है । तीर्थंकर के दोनों पार्श्वों में चमरवाहक खड़े हुए है । चंद्रप्रभ भगवान की दो पद्मासन प्रतिमाएँ हैं, जिनमे एक वह अतिशय सम्पन्न प्रतिमा है, जिस पर एक बार पसीने की भांति जलकण दिखाई दिये थे।
मंदिर क्रमांक 3
नवीन आकर्षक वेदी के निर्माण सन 1969 में क्षेत्र की वर्तमान प्रबंध समिति ने कराया है, जिसमे मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । मूर्ति लेख के अनुसार इस प्रतिमा की प्रतिष्टा विक्रम संवत 1885 में हुई थी । इसके समवशरण में मूलनायक के अतिरिक्त पाँच प्रतिमाएँ और विराजमान हैं जिनमे तीन प्रतिमाएँ प्राचीन हैं । इनमे 1 फुट, 2 इंच ऊंचे एक पाषाण फ़लक में 20 तीर्थंकर मूर्तिया बनी हुई है जिनमे दो पद्मासन और शेष खड्गासन हैं । यह विदेह क्षेत्र के 20 तीर्थंकरों की परिकल्पना है । 2 फुट 5 इंच ऊंची एक शिखराकृति में एक पद्मासन और दो खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण है। 2 फुट 5 इंच ऊंची अवगाहना को एक खड्गासन तीर्थंकर मूर्ति है । इसके परिकर में आकाश-विहारी गंधर्व और चमरवाहक दिख पड़ते है।
मंदिर क्रमांक 4
खाली किया गया है । जीर्णोद्धार कार्य हो रहा है । यहाँ भगवान महावीर स्वामी की विशाल प्रतिमा प्रतिष्टा कराकर विराजमान किये जाने की योजना है । जिसके लिये यहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आयोजित होगी ।
मंदिर क्रमांक 5
जीर्णोद्धार कार्य सम्पन्न होकर नवीन चित्ताकर्षक वेदी का निर्माण सम्पन्न हुआ है । अभी फरवरी 1976 में आयोजित वार्षिक मेला में वेदी प्रतिष्टा होकर श्री जिंनबिंब विराजमान किये गये हैं । मूलनायक के रूप में सुंदर काले पाषाण की 2 फुट 6 इंच ऊंची तीर्थंकर चौबीसी विराजमान है जिसमे मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ है । इस वेदी में विराजित तीनों प्रतिमाएँ एक से काले पाषाण की चुनी गयी है । चौबीसी के दोनों ओर काले पाषाण की तीर्थंकर मूर्तियाँ विराजमान है । वेदी में दोनों ओर इस प्रकार विशाल दर्पण लगाये गये हैं, जिससे उनमे अनेक प्रतिमाएँ दिखाई देती है।
इस मंदिर को गर्भ मंदिर कहा जाता है । शीत ऋतु में इस मंदिर में उष्णता रहती है । यद्यपि मंदिर में पक्षावकाश बने हुये है किन्तु मंदिर की ऊष्मा का क्या रहस्य है यह अब तक अविदित ही बना हुआ है । भक्तजन श्रद्धावश इसे वातानुकूलित कहते है । इस मंदिर में समय-समय पर अतिशय भी होते रहते है । पहले इस मंदिर में भगवान चंद्रप्रभु की मूर्ति विराजमान थी । प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार इस प्रतिमा पर एक बार पसीना की भांति जल कण दिखाई दिये थे । सूखे छन्ने से पोंछने पर वह गीला हो गया था । अब उस प्रतिमा को यहाँ से अन्य मंदिर में विराजमान कर उसके स्थान पर सहस्त्रकूट चैत्यालय विराजमान कर दिया गया है । पहले यह चैत्यालय उपर मंडी न. 8 में था ।
यह चैत्यालय एक अष्ठकोण स्तम्भ में बना हुआ है । इसमे तीन कटनिया हैं । इस चैत्यालय की कटनियों पर मेरु भी विराजमान थे, किन्तु वे किसी समय खंडित हो गये तब मूर्तियों की संख्या पूरी करने के लिये नंदीश्वर जिनालय की रचना में कुछ मेरुओ को यहाँ इस चैत्यालय में विराजमान कर दिया है । अब सहस्त्रकूट चैत्यालय की इस रचना को मूर्तियों की गणना का योग इस प्रकार है –
नीचे की कटनी में चारों दिशाओ में 51 x 8 = 408 1 फुट 10 इंच
मध्य की कटनी में चारों दिशाओ में 45 x 8 = 360 1 फुट 11 इंच
ऊपर की कटनी में चारों दिशाओ में 15 x 8 = 120 1 फुट 11 इंच
मेरुओ की मूर्ति संख्या 4 x 8 = 32
मेरुओ की मूर्ति संख्या 20 x 4 = 80
मेरुओ की मूर्ति संख्या 2 x 4 = 8
इन मेरुओं का माप इस प्रकार है –
ऊपर का मेरु 2 फुट 2 इंच
चारों दिशाओं के मेरु कृमश 1 फुट 8 इंच, 1 फुट 9 इंच, 1 फुट 10 इंच, 1 फुट 11 इंच. पूर्व दिशा का एकमात्र मेरु 8 इंच
सहस्त्रकूट जिनालय कई स्थानो पर मिलते हैं । दिगंबर परंपरा मैं इन जिनालयों मे 1008 मूर्तियाँ बतायीं जाती हैं । जबकि श्वेतांबर परंपरा में 1000 मूर्तियों के प्रचलन हैं । बाणपुर, पटनागंज, सम्मेदशिखर, दिल्ली, आदि कई स्थानो पर प्राचीन सहस्त्रकूट जिनालय हैं । इन सभी में 1008 मूर्तियाँ हैं । सहस्त्रकूट जिनालयों के प्रचलन कब से हैं, निश्चित रूप से यह कहना कठिन है, किन्तु वीं-12वीं शताब्दी से इसका प्रचलन निश्चित रूप से रहा है । गुप्तोत्तर युग में मूर्ति शिल्प में वैविध्य दृष्टिगोचर होता है । यह वैविध्य शैली, सज्जा और शासन देवताओं की मूर्तियों में तो दृष्टिगोचर होता ही हैं, तीर्थंकरों और मंदिरों के प्रतीक रूपों में भी दिखाई पड़ता है । इन प्रतिकात्मक विधाओ में सहस्त्रकूट चैत्यालयों की गणना की जा सकती है । यह चैत्यालय किसी तीर्थंकर विषय का प्रतिनिधित्व नहीं करते । इसलिए इन चैत्यालयों में मूर्तियों के नीचे लांछन का अंकन नहीं मिलता ।
कोनीजी क्षेत्र जबलपुर-पाटन-दमोह मार्ग पर केमूर पर्वतमाला की तलहटी मेँ हिरन सरिता के तट पर अवस्थित है । जबलपुर से पाटन बत्तीस किलोमीटर है । और पाटन से कोनीजी पाँच किलोमीटर है । मुख्य सड़क से बसन ग्राम तक जाकर बसन ग्राम से दायीं ओर को कोनीजी तक पक्की सड़क जाती है । मध्य रेल्वे के जबलपुर स्टेशन से तथा दमोह स्टेशन से दिन भर मोटरें मिलती है । कोनीजी मेँ शिखरबन्द दिगम्बर जैन मंदिर है।
रेल्वे स्टेशन – जबलपुर – 32 कि.मी.
बस स्टैंड – पाटन – 5 कि.मी.
पहुँचने का सरलतम मार्ग – जबलपुर-पाटन-दमोह सड़क मार्ग
आवास – हाँ
यह प्राकृतिक सुरम्य स्थल पर स्थित हैं .यहाँ अतीव शांति की अनुभूति होती हैं .शांत निर्जन स्थान होने पर ध्यान आदि के लिए बहुत अनुकूल हैं .
— डॉक्टर अरविन्द पी जैन