बूंदी—चित्तौड़गढ़ राष्ट्रीय राज्यमार्ग पर स्थित इस क्षेत्र में विक्रम संवत् 1226 का एक शिलालेख है, जिसके अनुसार भगवान पार्श्वनाथ को केवल ज्ञान प्राप्त होने से पूर्व कमठ द्वारा इसी स्थान पर उपसर्ग किया गया था। इसके बाद भगवान पार्श्वनाथ को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यह शिलालेख विश्व का सबसे विशालतम शिलालेख माना जाता है।
इस क्षेत्र पर कुल 11 मन्दिर हैं। एक चौबीसी, समवाशरण रचना व 2 मानस्तम्भ हैं। यहां संतशाला व गणधर परमेष्ठी मन्दिर भी हैं। स्थानीय लोगों की मान्यता के अनुसार उज्जैन के व्यापारी जब यहां यात्रा करते हुये आये, तो उन्हें प्रतिमाओं के बारे में सपना आया। अगले दिन उनके द्वारा निश्चित स्थान पर खुदाई की गई और प्रतिमायें निकाली गईं। इसके बाद इस मन्दिर का निर्माण करवाया गया।
एक मान्यता यह भी है कि सन् 1858 में कुछ अंग्रेज व्यक्तियों ने शिलालेख के नीचे खजाना होने के अनुमान के कारण उसे खोदने का प्रयास किया, लेकिन जैसे ही उनके द्वारा ऐसा किया जाने लगा, तो उनके उपर मधुमक्खियों ने हमला कर दिया और शिलालेख से दूध की धारा बहने लगी।
चैत्र बदी चतुर्थी को यहां वार्षिक मेला होता है। क्षेत्र में ठहरने का स्थान व भोजनाशाला सशुल्क उपलब्ध है।
बिजोलिया के मंदिर और शिलालेख
बिजोलिया नगर भीलवाड़ा जिले में स्थित है। उपरमाल के पठार पर स्थित बिजोलिया की प्रसिद्धि वहा स्थित ब्राह्मण और जैन मंदिरों और चट्टानों पर उत्कीर्ण शिलालेखो से भी ज्यादा भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व यहाँ हुवे किसान आन्दोलन के कारण है, जिसमे विभिन्न प्रकार के 84 करो के लगाए जाने के कारण जमींदार के विरुद्ध स्थानीय किसानो ने आन्दोलन किया था। जिसका नेतृत्व साधू सीतारामदास और विजय सिंह पथिक ने किया था|बिजोलिया,मेनाल,जोगनिया माता का ये क्षेत्र प्राचीन समय में में मुख्यत चौहानों के अधीन रहा वहा स्थित प्राचीन मंदिरों का निर्माण चौहान शासको के काल में हुआ। बाद में गुहिलो के अधीन आ गया। महाराणा सांगा के समय सांगा ने खानवा के युद्ध में परमार अशोक की वीरता से प्रभावित होकर बिजोलिया क्षेत्र उन्हें जागीर के रूप में प्रदान कर दिया गया जिसके बाद में स्वतंत्रता तक ये पंवारो की जागीर में ही रहा। बिजोलिया की कोटा से दुरी 85 किलोमीटर, बूंदी से 50 किलोमीटर, चित्तौडगढ से 100 किलोमीटर है
बिजोलिया में मुख्यत तीन मंदिर है जो जिनका निर्माण वहा लगे शिलालेख के अनुसार 11 वी शताब्दी से 13 वी शताब्दी के मध्य किया गया है। ये मंदिर लकुलीश सम्प्रदाय (शैव) से सम्बंधित है। मंदिरों में महाकालेश्वर का मंदिर सबसे प्राचीन है जिसमे दो गर्भगृह है तथा प्रवेश मंडप के द्वार के दोनों तरफ पार्वती तथा गणेश की प्रतिमा विराजित है तथा प्रवेश मंडप के अन्दर दोनों तरफ भगवान् शिव की लकुलीश प्रतिमाये रखी हुई है। मंदिर के सभामंड़प में नंदी की प्रतिमा रखी हुई है जो अपूर्ण है उसे पूर्ण रूप से शिल्पांकित नहीं की गई है। शाभामंड़प का शिखर अद्भुत शिल्पांकित है। सभामंड़प के सामने अर्धमंडप है तथा गर्भगृह के ललाट पर तथा चौखट पर सुन्दर मुर्तिया शिल्पांकित की गई है। गर्भगृह में शिवलिंग विराजित है। सभामंड़प के दाई और भी एक गर्भ गृह है जिसमे भगवान् शिव का शिवलिंग विराजित है है तथा बायीं और एक सीढ़ियायुक्त मार्ग है जो एक बावड़ी में खुलता है जन्हा के जल से दोनों गर्भ ग्रहों के शिवलिंगों का जलाभिषेक किया जाता है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर मूर्तियों का कलात्मक तक्षण किया हुवा है। मंदिर का शिखर आसमान को छूता प्रतीत होता है।
महाकालेश्वर मंदिर के समीप ही दाई तरफ उन्नत शिखर वाला हजारेश्वर महादेव का मंदिर है जिसका निर्माण भूमिज शैली में किया गया है जिसमे एक मंडप तथा गर्भगृह है। मंदिर की विशेषता गर्भगृह में स्थित शिवलिंग है जी काफी ऊँचा है तथा उस पर सहस्त्रो छोटे छोटे शिवलिंग उत्कीर्ण है जिसके कारण इसे हजारेश्वर महादेव भी कहा जाता है। मंदिर काम्प्लेक्स में लगे भारतीय पुरातत्व विभाग के सुचना पट के अनुसार इस मंदिर के मंडप में एक शिलालेख उत्कीर्ण है जिसके अनुसार ये मंदिर 12 वी शताब्दी का है तथा शैव सम्प्रदाय से सम्बंधित। हजारेश्वर मंदिर के समीप एक अन्य मंदिर है जिसके बाहर भी एक शिलालेख लगा है।
महाकाल मंदिर के पीछे की तरफ एक अत्यंत कलात्मक मंदिर बना हूआ है जिसे उन्डेश्वर महादेव का मंदिर कहते है इस मंदिर का ये नाम उसके गर्भगृह का अपेक्षाकृत गहरे होने तथा तल में शिवलिंग स्थापित होने के कारण पड़ा होगा। मंदिर के प्रवेश मंडप के आगे सभामंड़प मकर तोरण द्वारों युक्त है जिन पर अद्भुत शिल्पांकन किया गया है। इस मंदिर को देखकर नागदा के सहस्त्रबाहू मंदिर और बाड़मेर के किराडू के मंदिरों की याद आ जाती है। मंदिर के चारो तरफ अत्यंत कलात्मक मुर्तिया उकेरी गई है।
उन्डेश्वर महादेव मंदिर के आगे एक प्राचीन कुंड है जिसे मंदाकिनी कुंड कहते है। कुंड चारो तरफ से ऊँची दीवार से युक्त है जिसमे तीन सीढ़ियों के प्रवेश मार्ग है। कुंद के एक तरफ एक मंडप बना हुवा है। स्थानीय निवासियों के अनुसार कुंड का जल कभी नहीं सुखा है और बाराह महीनो कुंड में जल रहता है। कुंड की दीवारों पर अनेक शिलालेख उत्कीर्ण है जिनमे से कुछ पिण्डदान से सम्बंधित है। मंदाकिनी कुंड के कारण ही इन तीनो मंदिरों के समूहों को मंदाकिनी मंदिर भी कहा जाता है।
बिजोलिया बस्ती के दक्षिणी पूर्वी भाग में जैन मंदिर बने हुये है। कोटा जाने वाले हाईवे से एक सीधा रास्ता जो बूंदी की तरफ जाता है वहा से एक रास्ता मंदिरों की तरफ जाता है। वर्तमान में यंहा एक भव्य मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा है।
बिजोलोया का पार्श्वनाथजी का जैन मंदिर अपने आप में स्थापत्य की दृष्टि से अद्भुत है ये मन्दिर पंचायतन शैली में बना हुवा है जो अपने आप में अनूठा है क्युकि सामान्यत सभी जैन मंदिर 24,52 या 72 जिनालय या कुलिकाओ युक्त होते है जिसमे मध्य में मुख्य मंदिर तथा चारो तरफ ये जिनालय स्थित होते है। मंदिर के समीप ही एक प्राचीन कुंड बना हुवा है जिसे रेवती कुंड कहा जाता है। इसके पास ही प्राचीन सात जैन मंदिरों के भग्नावशेष स्थित है।
मंदिर के आगे चट्टानों पर उत्कीर्ण प्राचीन दो शिलालेख है जिसके संरक्षण हेतु उसके चारो तरफ एक कक्ष बना दिया गया है तथा शिलालेख के ऊपर एक कांच का बॉक्स लगा दिया गया है जिसे जरुरत पड़ने पर उसके दरवाजो को ऊपर उठा कर शिलालेख देखा और पढ़ा जा सकता है। शिलालेख में विक्रम संवत 1226 (1169 इसवी) में पोरवाड जाति के श्रेष्ठी प्रवर सियक के पुत्र महाजन लोलाक द्वारा जैन मंदिर बनाए जाने तथा चौहान शासक सोमेश्वर तथा उसके वंशावली तथा बिजोलिया के समीप स्थित मेनाल के मंदिरों का एक तीर्थ स्थल के रूप में उल्लेख किया गया है।
ये शिलालेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस शिलालेख पर जैन सम्प्रदाय से सम्बंधित उन्नत शिखर पुराण उत्कीर्ण किया गया है जिसमे 5 सर्ग है ततः 294 छंद है। शिलालेख के अनुसार इसी स्थान पर जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने 98 दिवस तक महातप किया था तथा उन्हें यही केवली प्राप्त हुवा था। शिलालेख से बिजोलिया के मंदिरों के तथा मेनाल के मंदिरों के निर्माण के सम्बन्ध में तथा चौहान शासको की वंशावली पर प्रकाश पड़ता है। दूसरा शिलालेख भी पास में ही स्थित है। बिजोलिया के शिलालेखो के पास में स्थित चट्टानों पर हजारो की संख्या में पगलिये (पांवो के चिन्ह) उत्कीर्ण है।
वर्तमान में मुनि पुंगव श्री १०८ सुधासागर जी महाराज ससंघ विराजकर चातुर्मास कर रहे हैं, उनके प्रभाव से यह क्षेत्र दिन प्रतिदिन विकसित होगा।
— डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन-Jain24.com