सामायिक पाठ : काल-अनंत भ्रम्यो – Samayak Paath : Kaal Anant Bharayo


कविश्री बुध महाचंद्र kavishri Budh Mahachandra
प्रथम : प्रतिक्रमण-कर्म

काल-अनंत भ्रम्यो जग में सहये दु:ख-भारी |
जन्म-मरण नित किये पाप को है अधिकारी ||
कोटि-भवांतर माँहिं मिलन-दुर्लभ सामायिक |
धन्य आज मैं भयो योग मिलियो सुखदायक ||१||

हे सर्वज्ञ जिनेश! किये जे पाप जु मैं अब |
ते सब मन-वच-काय-योग की गुप्ति बिना लभ ||
आप-समीप हजूर माँहिं मैं खड़ो-खड़ो सब |
दोष कहूँ सो सुनो करो नठ दु:ख देहिं जब ||२||

क्रोध-मान-मद-लोभ-मोह-मायावशि प्रानी |
दु:ख-सहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ||
बिना-प्रयोजन एकेंद्रिय वि-ति-चउ-पंचेंद्रिय |
आप-प्रसादहि मिटे दोष जो लग्यो मोहि जिय ||३||

आपस में इकठौर थापकरि जे दु:ख दीने |
पेलि दिये पगतले दाब करि प्रान हरीने ||
आप जगत् के जीव जिते तिन सबके नायक |
अरज करूँ मैं सुनो दोष-मेटो दु:खदायक ||४||

अंजन आदिक चोर महा-घनघोर पापमय |
तिनके जे अपराध भये ते क्षमा-क्षमा किय ||
मेरे जे अब दोष भये ते क्षमहु दयानिधि |
यह पडिकोणो कियो आदि षट्कर्म-माँहिं विधि ||१५||

द्वितीय : प्रत्याख्यान-कर्म

(इसके आदि या अंत में ‘आलोचना-पाठ’ बोलकर फिर तीसरे सामायिक भाव-कर्म का पाठ करना चाहिए।)

जो प्रमादवशि होय विराधे जीव घनेरे |
तिन को जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे ||
सो सब झूठो होउ जगत्-पति के परसादै |
जा प्रसाद तें मिले सर्व-सुख दु:ख न लाधे ||६||

मैं पापी निर्लज्ज दया-करि हीन महाशठ |
किये पाप अतिघोर पापमति होय चित्त-दुठ ||
निंदूँ हूँ मैं बार-बार निज-जिय को गरहूँ हूँ|
सबविधि धर्म-उपाय पाय फिर-फिर पापहि करूं हूँ ||७||

दुर्लभ है नर-जन्म तथा श्रावक-कुल भारी |
सत-संगति संयोग-धर्म जिन-श्रद्धाधारी ||
जिन-वचनामृत धार सभाव तें जिनवानी |
तो हू जीव संघारे धिक् धिक् धिक् हम जानी ||८||

इन्द्रिय-लंपट होय खोय निज-ज्ञान जमा सब |
अज्ञानी जिमि करै तिसि-विधि हिंसक ह्वे अब ||
गमनागमन करंता जीव विराधे भोले |
ते सब दोष किये निंदूँ अब मन-वच तोले ||९||

आलोचन-विधि थकी दोष लागे जु घनेरे |
ते सब दोष-विनाश होउ तुम तें जिन मेरे ||
बार-बार इस भाँति मोह-मद-दोष कुटिलता |
र्इर्षादिक तें भये निंदि ये जे भयभीता ||१०||

तृतीय : सामायिक-भाव-कर्म

अब जीवन में मेरे समता-भाव जग्यो है |
सब जिय मो-सम समता राखो भाव लग्यो है ||
आर्त्त-रौद्र द्वय-ध्यान छाँड़ि करिहूँ सामायिक |
संजम मो कब शुद्ध होय यह भाव-बधायक ||११||

पृथिवी-जल अरु अग्नि-वायु चउ-काय वनस्पति |
पंचहि थावर-माँहिं तथा त्रस-जीव बसें जित ||
बे-इंद्रिय तिय-चउ-पंचेद्रिय-माँहिं जीव सब |
तिन तें क्षमा कराऊँ मुझ पर क्षमा करो अब ||१२||

इस अवसर में मेरे सब सम कंचन अरु तृण |
महल-मसान समान शत्रु अरु मित्रहि सम-गण ||
जामन-मरण समान जानि हम समता कीनी |
सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी ||१३||

मेरो है इक आतम तामें ममत जु कीनो |
और सबै मम भिन्न जानि समता रस भीनो ||
मात-पिता सुत-बंधु मित्र-तिय आदि सबै यह |
मो तें न्यारे जानि जथारथ-रूप कर्यो गह ||१४||

मैं अनादि जग-जाल-माँहिं फँसि रूप न जाण्यो |
एकेंद्रिय दे आदि जंतु को प्राण-हराण्यो ||
ते सब जीव-समूह सुनो मेरी यह अरजी |
भव-भव को अपराध छिमा कीज्यो कर मरजी ||१५||

चतुर्थ : स्तवन-कर्म

नमौं ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्म को |
सम्भव भव-दु:ख-हरण करण अभिनंद शर्म को ||
सुमति सुमति-दातार तार भव-सिंधु पारकर |
पद्मप्रभ पद्माभ भानि भवभीति प्रीतिधर ||१६||

श्रीसुपार्श्व कृत पाश-नाश भव जास शुद्ध कर |
श्री चंद्रप्रभ चंद्रकांति-सम देह-कांतिधर ||
पुष्पदंत दमि दोष-कोष भविपोष रोषहर |
शीतल शीतलकरण हरण भवताप-दोषहर ||१७||

श्रेयरूप जिन-श्रेय ध्येय नित सेय भव्यजन |
वासुपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभय-हन ||
विमल विमलमति-देन अन्तगत है अनंत-जिन |
धर्म शर्म-शिवकरण शांतिजिन शांति-विधायिन ||१८||

कुंथु कुंथुमुख-जीवपाल अरनाथ जालहर |
मल्लि मल्लसम मोहमल्ल-मारन प्रचारधर ||
मुनिसुव्रत व्रतकरण नमत सुर-संघहि नमि जिन |
नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ माँहि ज्ञानधन ||१९||

पार्श्वनाथ जिन पारस-उपल-सम मोक्ष रमापति |
वर्द्धमान जिन नमूँ वमूँ भवदु:ख कर्मकृत ||
या-विधि मैं जिन संघरूप चउबीस-संख्यधर |
स्तवूँ नमूँ हूँ बारबार वंदूँ शिव-सुखकर ||२०||

पंचम : वंदना-कर्म

वंदूँ मैं जिनवीर धीर महावीर सु सन्मति |
वर्द्धमान अतिवीर वंदिहूँ मन-वच-तन-कृत ||
त्रिशला-तनुज महेश धीश विद्यापति वंदूँ |
वंदूँ नितप्रति कनकरूप-तनु पाप निकंदु ||२१||

सिद्धारथ-नृप-नंद द्वंद-दु:ख-दोष मिटावन |
दुरित-दवानल ज्वलित-ज्वाल जगजीव-उधारन ||
कुंडलपुर करि जन्म जगत्-जिय आनंदकारन |
वर्ष बहत्तर आयु पाय सब ही दु:खटारन ||२२||

सप्तहस्त-तनु तुंग भंग-कृत जन्म मरण-भय |
बालब्रह्ममय ज्ञेय-हेय-आदेय ज्ञानमय ||
दे उपदेश उधारि तारि भवसिंधु-जीव घन |
आप बसे शिवमाँहि ताहि वंदूं मन-वच-तन ||२३||

जाके वंदन-थकी दोष-दु:ख दूरहि जावे |
जाके वंदन-थकी मुक्ति-तिय सन्मुख आवे ||
जाके वंदन-थकी वंद्य होवें सुर-गन के |
ऐसे वीर जिनेश वंदिहूँ क्रम-युग तिनके ||२४||

सामायिक-षट्कर्म-माँहि वंदन यह पंचम |
वंदूं वीर जिनेंद्र इंद्र-शत-वंद्य वंद्य मम ||
जन्म-मरण-भय हरो करो अब शांति शांतिमय |
मैं अघ-कोष सुपोष-दोष को दोष विनाशय ||२५||

छठा : कायोत्सर्ग-कर्म

कायोत्सर्ग-विधान करूँ अंतिम-सुखदार्इ |
काय त्यजन-मय होय काय सबको दु:खदार्इ ||
पूरब-दक्षिण नमूँ दिशा पश्चिम-उत्तर में |
जिनगृह-वंदन करूँ हरूँ भव-पाप-तिमिर मैं ||२६||

शिरोनति मैं करूँ नमूँ मस्तक कर धरिके |
आवर्तादिक-क्रिया करूँ मन-वच-मद हरिके ||
तीनलोक जिन-भवन-माँहिं जिन हैं जु अकृत्रिम |
कृत्रिम हैं द्वय-अर्द्धद्वीप-माँहीं वंदूं जिन ||२७||

आठ कोड़ि परि छप्पन लाख जु सहस सत्याणूं |
च्यारि शतक-पर असी एक जिनमंदिर जाणूं ||
व्यंतर-ज्योतिष-माँहिं संख्य-रहिते जिनमंदिर |
ते सब वंदन करूँ हरहु मम पाप संघकर ||२८||

सामायिक-सम नाहिं और कोउ वैर-मिटायक |
सामायिक-सम नाहिं और कोउ मैत्रीदायक ||
श्रावक-अणुव्रत आदि अन्त सप्तम-गुणथानक |
यह आवश्यक किये होय निश्चय दु:ख-हानक ||२९||

जे भवि आतम-काज-करण उद्यम के धारी |
ते सब काज-विहाय करो सामायिक सारी ||
राग-रोष-मद-मोह-क्रोध-लोभादिक जे सब |
‘बुध महाचंद्र’ विलाय जाय ता तें कीज्यो अब ||३०||


Comments

comments