दशलक्षण धर्म का दसवाँ दिन है-उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांग

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आज उत्तम-ब्रह्मचर्य-धर्म का दिन है। अध्यात्म-मार्ग में ब्रह्मचर्य को सर्वश्रेष्ठ माना गया है , क्योंकि सही मायने में वही मोक्ष का कारण है। ‘ब्रह्म’ यानि ‘आत्मा’ और ‘चर्या’ यानि ‘रमण करना’ अर्थात् समस्त विषयों में अनुराग छोड़कर अपने आत्म-स्वरूप में रमण करना या लीन रहना ही सच्चा- ब्रह्मचर्य है।

इसे ‘अणुव्रत’ और ‘महाव्रत’ दोनों ही रूप से ग्रहण किया जाता है। ‘उत्तम-ब्रह्मचर्य’ तो नग्न- दिगम्बर भावलिंगी-मुनियों को ही होता है। श्रावकों के लिये इसे अणुव्रत के रूप में अवश्य ग्रहण करना चाहिये।

जो श्रावक अपनी जाति की , कुलीन घर की , समाज की साक्षी पूर्वक विवाहिता-स्त्री में संतोष धारण करके ,उसके अलावा अन्य समस्त स्त्री-मात्र में राग-भाव का त्याग करते हैं, वह ब्रह्मचर्य अणुव्रत के धनी होते हैं।

जो वृद्धा , बालिका , यौवना  स्त्री को देखकर उनमें बड़ी को माँ , छोटी को बेटी और हमउम्र को बहन समान मानकर स्त्री-संबंधी अनुराग का त्याग करते हैं , वे तीनों लोकों में पूज्य ब्रह्मचर्य-महाव्रत के धनी होते हैं।

इस प्रसंग में एक बात विशेष है कि ब्रह्मचर्य-अणुव्रत के धारी स्व-स्त्री का भी त्यागी हों– यह नियम नहीं है; परन्तु पर स्त्री, वेश्या, दासी, कुलटा, कुँवारी आदि सभी स्त्रियों से पूर्ण-विरक्त यानि उनसे रागभाव पूर्वक मिलना , बात करना , अवलोकन करना , स्पर्श करना आदि समस्त क्रियाओं का मन से , वचन से , काया से कृत-कारित-अनुमोदना से पूर्णतः त्यागी होते है। इसीलिये इस व्रत का नाम परस्त्री-त्याग या स्वदार (अपनी स्त्री) का  संतोषी भी है।

साथ ही पाँचों इन्द्रियों के विषयों में अति-तृष्णा का भाव और स्वयं की स्त्री के प्रति भी तीव्र-लालसा का भाव न रखते हुये अष्टमी , चतर्दशी और पर्वादि के दिनों में संयम से रहते हैं।

आगम में परस्त्री-सेवन को सबसे निंद्य-कार्य माना गया है। ‘लाटीसंहिता’ नामक ग्रंथ में एक प्रश्न आता है, जो इस संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण है —  विषय- सेवन करते समय जो क्रिया धर्मपत्नी में की जाती है, वही क्रिया एक दासी के साथ की जाती है। तो क्रिया-भेद न होने से उन दोनों में भी कोई भेद नहीं होना चाहिये ??

तब आगम से उत्तर मिलता है कि कर्मबंधन में प्रधानता परस्त्री-स्पर्श या विषय-सेवन आदि बाह्य-कारणों की नहीं; बल्कि उस समय होनेवाले जीव के परिणामों की है। और दासी के सेवन में तीव्र-लालसा का भाव है , अतः तीव्र-पाप का बंध है। जैसे —

एक उदाहरण से विचार करें — जल का स्वभाव पूर्ण-निर्मल है , परन्तु फिर भी चंदनादि सुगंधित- पदार्थ के संपर्क में आने पर ‘शोभनीय’ और कीचड़-गंदगी आदि के संपर्क में आने पर ‘अशोभनीय’ संज्ञा पाता है। उसीप्रकार दासी और धर्मपत्नी के साथ एक जैसी क्रिया होने पर भी जीव के परिणामों में अंतर आता है, जिससे कर्म-बंधन में भी अंतर आता है।

इसीलिये आगम में परस्त्री-प्रेम को आपत्तियों का जनक माना गया है। जो इसलोक में तो दुःखदायी है ही , परलोक में भी दुःखदायी है। परस्त्री-सेवन नरकादि कुगतियों में गमन का साक्षात कारण है। इसलिये परस्त्री-सेवन का त्याग तो सभी को होना ही चाहिये।

वास्तव में देखा जाये, तो जिसका शील सुरक्षित है, उसके सब व्रतादिक ‘सहज’ और ‘कार्यकारी’ हैं। और जिसका शील सुरक्षित नहीं है, उसके व्रत-तप आदि सब निस्सार हैं।

‘आचार्य कुन्दकुन्द’ ने ‘सीलपाहुड’ में शील की महिमा गाते हुये लिखा है —

जीवदया-दम सच्च अचोरियं बंभचेर संतोसो।

सम्मदंसण-णाणं तवो य सीलस्स परिवारो।।

अर्थात्  जीवदया , इन्द्रियदमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य , सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप—  ये सब ‘शील का परिवार’ है।

हम सब भी इस शील के परिवार के सदस्य बनकर ‘उत्तम- ब्रह्मचर्य-धर्म’ को धारण करें–  ऐसी मंगल भावना है।

 

नीरज जैन, दिलशाद ग्राडंन, दिल्ली


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