विश्व में अनेकों देश है लेकिन इन सभी देशों में भारत मात्र एक ऐसा देश है जहाँ सहस्रों भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिंदी जैसी भारतीय भाषाओं का अपना विशेष महत्व है। संस्कृत, हिंदी भाषा से तो सभी परिचित हैं किन्तु अतिप्राचीन जनभाषा के रूप में प्रचलित ‘प्राकृत भाषा‘ से आज जन मानस उतना परिचित नहीं है। यदि हमें प्राचीन भारतीय संस्कृति, ज्ञान – विज्ञान, तत्त्वज्ञान, संस्कृति, गणित, चिकित्सा शास्त्र, कलाओं, इतिहास तथा लोक-परम्पराओं आदि के ज्ञान को प्राप्त करना है तो ‘प्राकृत भाषा’ का अध्ययन अनिवार्य है। प्राकृत भाषा में ही भारत का इतिहास निहित है इसीलिए भारत देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी ने अपनी स्पीच में कहा – “प्राकृत भाषा के ज्ञान के बिना भारत का इतिहास ही अधूरा है।” ‘प्राकृत’ शब्द प्रकृति से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है नैसर्गिक या स्वाभाविक। इस दृष्टि से वह भाषा जिसका प्रयोग जन सामान्य करते रहे, प्राकृत कहलायी। जब बच्चा जन्म लेता है तो वह ‘द्रव्य’ को द्रव्य न बोलकर ‘दव्व’ बोलता है, बस यही प्राकृत है। प्राकृत भाषा को सभी भाषाओं की जननी कहा जाता है। प्राकृत भाषा की उत्पत्ति अन्य किसी भाषा से नहीं हुई हैं अपितु सभी भाषाएँ इसी प्राकृत से ही उत्पन्न हैं। इस सन्दर्भ में आठवीं शताब्दी के कवि वाक्पतिराज ने प्राकृत भाषा में एक गाथा लिखी है –
सयलाओ इमं वाआ विसन्ति एत्तो य णेंति वायाओ।
एन्ति समुद्दं च्चिय णेंति सायराओ च्चिय जलाइं।।
अर्थात् “सभी भाषाएँ इसी प्राकृत से निकलती हैं और इसी को प्राप्त होती हैं। जैसे सभी नदियों का जल समुद्र में ही प्रवेश करता है और उससे ही (वाष्प रूप में) बाहर निकलकर नदियों के रूप में परिणत हो जाता है।”
वाक्पतिराज द्वारा रचित इस प्राकृत गाथा से भी हम समझ सकते हैं प्राकृत भाषा अति प्राचीन भाषा है, और सभी भाषाओं का उद्गम इस प्राकृत भाषा से ही हुआ है। इसीलिए तो जन सामान्य में इसकी लोकप्रियता को देखते हुए भगवान महावीर ने प्राकृत में ही अपने उपदेश दिए। जैन धर्म का अनादिनिधन महामंत्र णमोकार भी प्राकृत भाषा में लिखा हुआ है । ‘धम्मकहा‘ ग्रन्थ में प्राकृत भाषा के संदर्भ में एक गाथा आती है-
‘पागदभासामूला दिस्सदि ववहार भारदे देसे।
पादेसिगभासासुं अज्जवि सद्दा सुणिज्जंति॥
गोस्वामी तुलसीदास जी कृत रामचरित मानस में भी प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिंदी का रूप दिखाई देता है। उसमें भी उन्होंने प्राकृत कवियों की प्रशंसा की है। उसमें एक चौपाई लिखी है-
जे प्राकृत कवि परम सयाने, भासउ जिन हरि चरित बखाने।
जे भवहि जे होहिं आगे, प्रणमउ सबड़ कपट सब त्यागे।।
जितने भी प्राचीन नाटक जैसे – अभिज्ञान शाकुंतलम , मुद्रा राक्षस , मृच्छकटिकम आदि बहुत सी रचनाये प्राकृत भाषा में मिलती हैं । इन सभी रचनाओं में प्राकृत भाषा का भी प्रयोग मिलता है। प्राकृत भाषा की प्राचीनता को और भी अनेक प्रमाणों के माध्यम से सिद्ध किया जा सकता है। जितने भी प्राचीन शिलालेख, स्तम्भलेख, गुहालेख एवं पांडुलिपियाँ हैं, ये सभी इसी प्राकृत भाषा में हैं। भारत में लगभग 50 लाख पांडुलिपियाँ हैं जोकि विश्व में सबसे बड़ी संख्या मानी जाती है । जैन राजा खारवेल द्वारा उत्कीर्ण उदयगिरि खंडगिरि में हाथी गुम्फा शिलालेख में भारत का प्राचीन नाम ‘भरधवस‘ मिलता है। सम्राट अशोक द्वारा उत्कीर्ण अधिकांश शिलालेख प्राकृत भाषा में ही हैं। उसके द्वारा कई स्थानों पर उत्कीर्ण वृहद एवं लघु शिलालेख मिलते हैं जिनसे भारतीय इतिहास एवं उस समय की राज्य व्यवस्था का पता चलता है । सम्राट अशोक ने प्राकृत भाषा को राज्य भाषा का गौरव प्रदान किया।
हमारे प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी जी द्वारा अभी कुछ दिन पूर्व ही पांच भाषाओ को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है जिसमे एक प्राकृत भाषा भी है। इसके साथ ही विगत कुछ माह पूर्व प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी जी द्वारा इंदौर में ‘जैन अध्ययन केंद्र’ एवं गुजरात में ‘जैन पांडुलिपि विज्ञानं केंद्र’ की स्थापना की भी स्वीकृति दी है ।
प्राकृत भाषा का अध्ययन न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी कराया जा रहा है। आज भी SOAS लंदन यूनिवर्सिटी, OXFORD, WASHINGTON यूनिवर्सिटी में प्राकृत भाषा का अध्ययन कराया जा रहा है। अनेक प्राकृत ग्रन्थ, रचनाएँ, सट्टक, नाटक जैनाचार्यों एवं अजैन कवियों / विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं। आधुनिक युग में प्राकृत भाषा का व्याकरण लिखने वाले जर्मन विद्वान डॉ पिशेल ने जर्मनी में प्राकृत अध्ययन खूब विकसित हुआ। अशोक के शिलालेखों को भी सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप जोकि इंग्लैंड के थे उन्होंने पढ़ने में सफलता हासिल की थी। हम विचार करें यदि विदेशों में रहने वाले इस भाषा को सीख रहे हैं तो जिस भारत देश में यह भाषा मूल रूप में प्रचलित थी उस भारत देश में इसका लोप क्यों हो रहा है? आज के आधुनिक युग में हम भौतिकता की चकाचौंध में आगे भागे जा रहे हैं, यदि आपको अपना इतिहास सुरक्षित रखना है, अपनी संस्कृति को बचाना है तो आपको इस भाषा को सीखना होगा। जिस तरह आपके बच्चे चाइनीज, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओ को सीख रहे हैं उसी प्रकार उन्हें इस भाषा से भी अवगत कराओ। मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज द्वारा रचित पाइय सिक्खा की पुस्तकों के माध्यम से आज प्राकृत भाषा को सीखना सरल हो गया है ।
प्राकृत ऑनलाइन पाठशाला में इन्हीं पुस्तकों के माध्यम से प्राकृत भाषा का ज्ञान कराया जाता है । प्राकृत भाषा के प्रति रूचि जाग्रत करने के लिए पिछले 8 वर्षों से नवीन-नवीन तकनीको के माध्यम से प्राकृत भाषा का ज्ञान घर बैठे ही निःशुल्क कराया जा रहा है एवं उन्हें प्रशिक्षण देने के लिए मुनि श्री के सान्निध्य में “प्राकृत प्रशिक्षण शिविर” का आयोजन पिछले 3 वर्षो से हो रहा है । ये सभी कार्य प्राकृत भाषा के प्रचार – प्रसार हेतु किये जा रहे हैं , आप भी QR कोड को स्कैन करके प्राकृत की नई पाठशाला से जुड़ सकते हैं ।
आशा करती हूँ आप सभी अपनी इस भाषा को अवश्य सीखेंगे । इन्हीं शुभभावों के साथ जय जिणिंद……..
श्रीमती नेहा जैन ‘प्राकृत’
सचिव एवं अध्यापिका
प्राकृत जैन विद्या पाठशाला , रेवाड़ी (हरियाणा)