जन्म और प्रारंभिक जीवन
तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 2 हजार 9 सौ वर्ष पूर्व वाराणसी में हुआ था। वाराणासी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर सर्पचिह्म था। वामा देवी ने गर्भकाल में एक बार स्वप्न में एक सर्प देखा था, इसलिए पुत्र का नाम ‘पार्श्व’ रखा गया। उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। एक दिन पार्श्व ने अपने महल से देखा कि पुरवासी पूजा की सामग्री लिये एक ओर जा रहे हैं। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि एक तपस्वी जहाँ पंचाग्नि जला रहा है, और अग्नि में एक सर्प का जोड़ा मर रहा है, तब पार्श्व ने कहा— ‘दयाहीन’ धर्म किसी काम का नहीं’।
वैराग्य और दीक्षा
तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था और जैनेश्वरी दीक्षा ली थी और ब्रह्मचारी अविवाहित थे।
केवल ज्ञान
काशी में 83 दिन की कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। पुंड़्र, ताम्रलिप्त आदि अनेक देशों में उन्होंने भ्रमण किया। ताम्रलिप्त में उनके शिष्य हुए। पार्श्वनाथ ने चतुर्विध संघ की स्थापना की, जिसमे मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका होते है और आज भी जैन समाज इसी स्वरुप में है। प्रत्येक गण एक गणधर के अन्तर्गत कार्य करता था। सभी अनुयायियों, स्त्री हो या पुरुष सभी को समान माना जाता था। सारनाथ जैन-आगम ग्रंथों में सिंहपुर के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं पर जैन धर्म के 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ जी ने जन्म लिया था और अपने अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। केवल ज्ञान के पश्चात तीर्थंकर पार्शवनाथ ने जैन धर्म के चार मुख्य व्रत – सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह की शिक्षा दी थी।
निर्वाण
अंत में अपना निर्वाणकाल समीप जानकर श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ की पहाड़ी जो झारखंड में है) पर चले गए जहाँ श्रावण शुक्ला सप्तमी को उन्हे मोक्ष की प्राप्ती हुई। भगवान पार्श्वनाथ की लोकव्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों और चिह्नों में पार्श्वनाथ का चिह्न सबसे ज्यादा है। आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियाँ देश भर में विराजित है। जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी पार्श्वनाथ धर्म के अनुयायी थे।.
पूर्वजन्म
जैन ग्रंथों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ को नौ पूर्व जन्मों का वर्णन हैं। पहले जन्म में ब्राह्मण, दूसरे में हाथी, तीसरे में स्वर्ग के देवता, चौथे में राजा, पाँचवें में देव, छठवें जन्म में चक्रवर्ती सम्राट और सातवें जन्म में देवता, आठ में राजा और नौवें जन्म में राजा इंद्र (स्वर्ग) तत्पश्चात दसवें जन्म में उन्हें तीर्थंकर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलत: वे तीर्थंकर बनें।
अन्य नाम– पारसनाथ, जिन
एतिहासिक काल—८७२-७७२ ई.पू.
शिक्षाएं – अहिंसा
गृहस्थ जीवन–वंश -इक्ष्वाकु,
पिता – राजा अश्वसेन,
माता – रानी वामादेवी
जन्म कल्याणक – पूर्व पौष कृष्ण एकादशी,
जन्म स्थान -वाराणसी
दीक्षा स्थान – बनारस,
मोक्ष – श्रावण शुक्ला अष्टमी
मोक्ष स्थान – सम्मेद शिखर
लक्षण—रंग हरा
चिन्ह-सर्प,
ऊंचाई-९ हाथ
आयु -१०० वर्ष
वृक्ष -अशोक शासक देव
यक्ष – धरणेन्द्र
यक्षिणी – पद्मावती
गणधर
प्रथम गणधर श्री शुभदत्त,गणधरों की संख्या –श्वेतांबर परंपरा– ८, दिगंबर परंपरा– १० सित-सातें-सावन आई, शिव-नारि वरी जिनराई |
सम्मेदाचल हरि माना, हम पूजें मोक्ष-कल्याना || ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ।५।
— डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन