सबसे पहले क्रोध को जीतने के लिए क्षमा धर्म का पालन करना अनिवार्य हैं। वैसे जिस व्यक्ति में क्षमा भाव आ जाते हैं उसमे दस लक्षण धर्म के सब भाव आ जाते। जिस प्रकार हाथी के पाँव में सब पाँव समा जाते हैं ,वैसे ही क्षमा के अंतर्गत सब धर्म आ जाते हैं। जिस व्यक्ति के पास क्षमा के बाद, मान कषाय की बहुलता होती हैं उसे जीतने के लिए मार्दव धर्म को अंगीकार करना अनिवार्य होता हैं ,जिससे मनुष्य में अभिमान ,घमंड न रहे। इसके बाद जीवन में सरलता होना आवश्यक हैं। आज आर्जव धर्म की चर्चा होगी।
आर्जव धर्म — योगस्यावक्रता आर्जव।
मन ,वचन ,काय लक्षण योग की सरलता व कुटिलता का अभाव उत्तम आर्जव धर्म हैं। जो विचार हृदय में स्थित हैं ,वही वचन में कहता हैं और वही बाहर फलता हैं ,यह आर्जव धर्म हैं। डोरी के दो छोर पकड़ कर खींचने से वह सरल होती हैं ,उसी तरह मन में से कपट दूर करने पर वह सरल होता हैं अर्थात मन की सरलता का नाम आर्जव हैं।
जो संसार से भयभीत साधु सैकड़ों कप्तान रूप नदियों में स्नान करने वाले शत्रुओं के द्वारा ठगा जाकर के भी तथा स्वयं माया व्यवहार में कुशल होकर भी यहाँ शरीर ,वचन और मन की कुटिलता को प्राप्त नहीं होता उसके निर्मल आर्जव धर्म होता हैं ,ऐसा गणधर देवादि बताते हैं। जो अपने अपराधों को नहीं छिपाता,व्रतों में लगे अतिचारों की निंदा -गर्हा करता हैं और प्रायश्चित के द्वारा उनकी शुद्धि करता हैं वह आर्जव धर्म का धारी हैं। जो मुनि कुटिल विचार नहीं करता ,कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता तथा अपने दोष नहीं छिपाता ,उसके उत्तम आर्जव धर्म होता हैं। जो मनस्वी प्राणी कुटिलभाव व मायाचार रूप परिणामों को छोड़कर शुद्ध हृदय से चारित्र पालन करता हैं उसके नियम से तीसरा आर्जव धर्म होता हैं।
दोषों को अतिशय छिपाने पर भी कालांतर में कुछ काल -व्यतीत होने के बाद वे दोष लोगों को मालूम पड़ते ही हैं। इसलिए मायाचार करने से क्या लाभ ?जैसे चंद्र को राहु ग्रस लेता हैं यह बात छिपती नहीं ,सर्व प्रसिद्ध होती हैं ,वैसे ही दोष छिपाने का कितना भी प्रयत्न करो ,परन्तु यदि तुम पुण्यवान नहीं हो तो तुम्हारे दोष लोगों को मालूम होंगे ही। पुण्यवान के दोष प्रत्यक्ष होने पर भी लोग उसे दोष नहीं मानते ,जैसे तालाब का पानी मलिन होने पर भी उसकी मलिनता की ओर ध्यान नहीं जाता ,सैकड़ों कपट प्रयोग करने पर भी पापी मनुष्यों को धन प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार इस भव में और परभव में माया से अनेक दोष उतपन्न होते हैं। ऐसा जानकार माया का त्याग करना चाहिए।
आर्जव धर्म के गुण—
1. आर्जव धर्म से मनुष्यों को अत्यंत निर्मल गुण प्राप्त होते हैं।
2. तीन लोक में सारभूत सुख की प्राप्ति आर्जव धर्म से ही होती हैं।
3. तीर्थंकरादिक की विभूतियाँ इसी से मिलती हैं।
4. सरल हृदयवाले धर्मात्माओं के संसार का नाश करने वाला साक्षात् मोक्षस्त्री को देने वाला और समस्त पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाला उत्तम धर्म होता हैं।
5. सदा भोगोपभोग का सेवन करने वाले भोगभूमिया जीव योगो की सरलता के कारण ही स्वर्ग में जाकर जन्म लेते हैं।
6. सरल हृदय में गुणों का वास होता हैं। गुण मायाचार का आश्रय नहीं लेते।
मायाचारी के दोष —
1. मायाचार से निंदनीय त्रियंचायादि गति प्राप्त होती हैं।
2. एक बार भी किया गया कपट व्यवहार भारी कष्टों से उपार्जित मुनि के समत्व आदि गुणों की छाया भी नहीं रहने देता हैं। क्योकि उस कपटपूर्ण व्यवहार में वस्तुतः क्रोधादि सभी दुर्गुण परिपूर्ण होकर रहते हैं।
3. कपट व्यवहार ऐसा पाप हैं कि जिसके कारण यह जीव दुर्गतियों के मार्ग में चिरकाल तक परिभ्र्रमण करता हैं।
4. मायाचारी पुरुषों के तप ,संयम वा शुभ क्रियाएं कुछ नहीं बन सकती ,क्योकि यह निश्चित हैं कि मायाचारी से उतपन्न पाप के कारण त्रियंच गति की प्राप्ति होती ही हैं।
5. धनिक मनुष्य के भी शरीर में प्रविष्ट हुआ बाण व्यथित करेगा ही वैसे ही तपसम्रद्ध मुनि को भी माया का शल्य होने से मोक्ष लाभ नहीं हो सकता हैं।
6. छली व्यक्ति का कोई विश्वास नहीं करते ,सभी द्वेष करते हैं।
7. उसे अपमान सहना पड़ता हैं ,सुजन उसको मान नहीं देते हैं।
8. वह अपने सम्बन्धियों का भी शत्रु होता हैं ,,उसका अल्प अपराध भी महान माना जाता हैं।
9. महादोष का आरोहण और हज़ारों सत्यों को कुचलना ,ये दो महादोष माया से होते हैं।
10. कपट से मैत्री का नाश होता हैं और मैत्रीनाश से धर्म -अर्थ आदि का नाश होता हैं।
11. मायाचार ,विषमिश्रित दुग्ध मक्षण के समान ,यह मित्रकार्य का विनाश करता हैं और श्रामण्य की हानि करता हैं।
12. माया से नीचगौत्र ,स्त्रीपना ,नपुंसकपना और त्रियंच गति मिलती हैं। मायावी सैकड़ों भवों में अन्य लोगों से अनेक उपायों के द्वारा ठगा जाता हैं।
जो जीव पूर्व भव में छलकपट से दूसरों को ठगते हैं और वंचना से प्राप्त धन -सम्पत्ति के द्वारा अपने ही शरीर को पोषते हैं ,वे मरकर त्रियंच गति में जाते हैं। वहां पर प्रयन्तपूर्वक पाले -पोषे उनके पुष्ट शरीर मांसाहारियों की उदरदरी में समा जाते हैं।
कपट न कीजे कोय ,चोरन के पुर ना बसै।
सरल सुभावी होय ,ताके घर बहु सम्पदा।।
उत्तम आर्जव रीति बखानी ,रंचक दया बहुत दुखदानी।
मन में हो तो वचन उचरिये ,वचन होय सो तन सौं करिये।।
करिये सरल तिहुँ जोग अपने ,देख निर्मल आरसी।
मुख करैं जैसा लखै तैसा ,कपट –प्र्रति अंगारसी।।
नहीं लहैं लक्षमी अधिक छलकरि ,कर्म -बंध विशेषता।
भय त्यागी दूध बिलाव पीवै ,आपदा नहीं देखता।।
आर्जव धर्म सरलता का नाम हैं ,जिस व्यक्ति के जीवन में सरलता आ जाती हैं ,वह कभी दुखी नहीं होता। वर्तमान में छल –कपट, धोखा– धड़ी का बहुत अधिक बोलबाला हैं ,जिससे करने वाला अपने आपको बहुत चतुर ,होशियार मानता हैं पर उसके कर्मों की रिकॉर्डिंग उसकी आत्मा में हो रही हैं और उसका फल उसे भोगना पड़ता ही हैं ,कभी तत्काल अन्यथा अगले भव में निश्चित ही भोगना होगा। सांप कितना भी टेड़ा चले जब वह अपने बिल में जाता हैं तब उसे सीधा ही होना होता हैं।
वर्तमान में हम कोई कोई को नपुंसक ,या नीच जाति का या स्त्रीपना या जानवर आदि देखने मिलते हैं कभी आपने सोचा ये क्यों, कैसे बने ?उसका मुख्य कारण उन्होंने पूर्व जन्म में खोटे कर्म किये ,मन ,वचन और कर्म में एकाकार नहीं रहा। इसलिए हम छल कपट कर अधिक धनवान तो बन जाते हैं क्योकि धन का आना तो निश्चित था तो मिला पर उसके लिए जो खोटे कर्म किये उसका तो हिसाब किताब तो अवश्य ही करना होगा और आपका भविष्य सुखद के साथ भयग्रस्त रहता हैं। हमारी प्रत्येक क्रियायें मन ,वचन और क्रियायों से एक होना ही चाहिए। भौतिक सुख साधन अनित्य यानी स्थाई नहीं होते।
हे प्रभु सबको उत्तम आर्जव धर्म मिले ऐसी भावना करता हूँ।
— डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन