वर्तमान में भारत वर्ष में विश्व व्यापी करोना वायरस की महामारी के कारण अभूतपूर्व लॉक डाउन चल रहा है जो पहले कभी नहीं देखा गया । लोग हफ्तों से घरों में बंद हैं और आगे भी ऐसे ही रहना पड़ सकता है । खबरें सुनने में आ रहीं हैं कि इसके कारण अब लोगों में अवसाद या डिप्रेशन की समस्या हो रही है । वास्तव में यह समस्या तब ज्यादा उत्पन्न होती है जब हमें अध्यात्म का अभ्यास नहीं होता है और हम जीवन जीने की वास्तविक कला को नहीं जानते हैं ।
महामारी के कारण आज विश्व के मानचित्र पर एक सबसे बड़ी समस्या है – बढ़ता मानसिक तनाव और अवसाद |यह एक ऐसी समस्या है जिससे सामने आधुनिकता और विकास के हमारे सारे तर्क बेमानी लगने लगे हैं |इतना पैसा ,समृद्धि,विकास आखिर किस काम का यदि हम सुख और शांति की नींद भी न ले सकें | मनुष्य का यह विकास नहीं ह्रास ही माना जायेगा कि सारे संसाधन होते हुए भी वह निरा असहाय और अशांत है ,आखिर ऐसी उन्नति किस काम की जो अशांति पैदा करती है ,हमें सुख से जीने नहीं देती | विकास की इस छद्म दौड़ ने हमें इकठ्ठा करना तो सिखाया ,लेकिन त्याग के मूल्य को समाप्त कर दिया जो हमें सुख देता था | विकास ने हमें सोने के लिए मखमली गद्दे तो दे दिए लेकिन वो नींद छीन ली जो चटाई पर भी सुकून से आती थी | निश्चित ही हम किसी परिपूर्ण दिशा में आगे नहीं बढ़ रहे हैं |
विकास को नकारा नहीं जा सकता लेकिन जीवन की सुख शांति से भी समझौता नहीं किया जा सकता |ऐसे द्वंद्वात्मक माहौल में हमें कोई ऐसा समाधान निकालना होगा जिससे इन दोनों का संतुलन बना रहे |
भारत में युवा पीढ़ी भी तेजी से इसकी गिरफ्त में आ रही है | इनका भौतिक जगत जितना गतिमान और समृद्ध दिखाई दे रहा है इनका भाव जगत उतना ही क्षत – विक्षत है | उम्र की उठान पर ही यह घनघोर हताशा और निराशा के शिकार हो रहे हैं |इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए मनोवैज्ञानिकों तथा चिकित्सकों द्वारा काफी उपाय किये जा रहे हैं | काफी हद तक उन्हें समाधान मिलते भी हैं किन्तु ऐसी समस्या उत्पन्न ही न हो इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने उन शाश्वत सिद्धांतों के अपनाने का प्रयास करें जिनसे प्राचीनकाल से ही जीवों ने शाश्वत सुख और शान्ति को प्राप्त किया हैं |
ईसा से लगभग छह सौ वर्ष पूर्व भारत की धरती पर भगवान महावीर का जन्म साधना के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी युग की शुरुआत थी। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन वैशाली नगर के ज्ञातृवंशी कश्यप गोत्रीय क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ तथा माता त्रिशला के राजमहल में बालक वर्धमान के रूप में एक ऐसे पुत्र ने जन्म लिया जिसने तत्कालीन प्रसिद्ध धर्म की व्याख्याओं में अध्यात्म को सर्वोपरि बतलाकर संपूर्ण चिन्तन धारा को एक नयी दिशा दी। भगवान महावीर ने अपनी साधना के बल से कुछ ऐसे नवीन अनुसन्धान किये हैं जिन्हें यदि स्वीकार कर लिया जाए तो मनुष्य अवसाद में जा ही नहीं सकता |
अनेकान्त का सिद्धांत
भगवान् महावीर ने वस्तु का स्वरुप समझाते समय उसे अनेकान्तात्मक बतलाया | यह सिद्धांत है कि विरोध वस्तु के स्वभाव में है | यह दार्शनिक सिद्धांत व्यवहारिक व्याख्या सहित समझ लिया जाय तो मनुष्य विरोध को स्वीकार कर पायेगा और जीवन में मानसिक संतुलन नहीं खोएगा |निराशावादी और हठ धर्मिता के स्वभाव वाले लोग अक्सर प्रत्येक वस्तु, घटना य परिस्थिति को सिर्फ अपने नज़रिये से देखते हैं | उनका यह एकांगी दृष्टिकोण उन्हें इसलिए अवसाद की ओर धकेल देता हैं क्यों कि वे घटना या परिस्थिति के दूसरे पक्ष की तरफ देख ही नहीं पाते हैं | भगवान महावीर ने वस्तु का स्वरूप अनन्त धर्मात्मक बताया है | उसी अनन्त धर्मात्मक वस्तु का स्वरूप को समझकर मनुष्य निज स्वरूप का विचार करे तो वह कभी तनाव या अवसाद से ग्रसित नहीं हो सकता | दो विरोधी दिखने वाले धर्मों का एक ही द्रव्य में एक साथ सहावस्थान होना तो वस्तु का अनेकान्तात्मक स्वभाव है | इसलिए मेरा दृष्टिकोण जो है ठीक उससे विपरीत दृष्टिकोण या विचार दूसरे के हो सकते है – यह स्वीकारोक्ति ही व्यक्ति को आधे से अधिक तनावों से मुक्त कर देती है और वह सुखी हो जाता है फलस्वरूप वह अवसाद से ग्रसित ही नहीं होता |
अहिंसा का सिद्धान्त
भगवान् महावीर का अहिंसा का सिद्धान्त प्रत्येक सिद्धान्त के पृष्ठभूमि में रहता ही है | प्रमाद के योग से प्राणों का हरण कर लेना हिंसा कहलाता है | मन-वचन-काय से किसी जीव को दुःखी करना या उसके प्राणों का हरण कर लेना ही मुख्य रूप से हिंसा है | हिंसा करने से पहले व्यक्ति का मन, विचार, भाव आदि स्वयं हिंसक हो जाता है | लगातार हिंसा की विचारधारा होने से मनुष्य तनाव में रहता है | दूसरों को दुःखी करने वाले को सबसे पहले स्वयं परेशान होना पड़ता है | अहिंसा का भाव मन को शान्त रखता है अतः तनाव मुक्त रहने के लिए अहिंसक विचारधारा बहुत आवश्यक है |
अपरिग्रह का सिद्धान्त
भगवान महावीर ने माना कि दुखों का मूल कारण परिग्रह भी है |मूर्छा अर्थात् आसक्ति को परिग्रह कहा गया है | आवश्यकता से ज्यादा अचेतन पदार्थों का संग्रह मनुष्य को तनाव में डाल देता है | जो मनुष्य जितना कम परिग्रह रखता है उतना ही तनावमुक्त रहता है | मनुष्य जिस भी पदार्थ में आसक्त रहता है उस पदार्थ का वियोग होने पर वह अत्यन्त मानसिक दुःखों को भोगता है जो तनाव का कारण बनता है | अतः जितना कम परिग्रह तथा आसक्ति उतनी ही तनाव मुक्ति |
कर्म सिद्धान्त
“जो जैसा करता है, वो वैसा भरता है” – यह सामान्य सा कर्म सिद्धान्त है जो सम्पूर्ण भारतीय जनमानस में समाया हुआ है | जैन कर्म सिद्धान्त में इसकी गहरी मीमांसा की गयी है | जैन दर्शन के अनुसार यह सृष्टि अनादि अनन्त है इसका कोई निर्माता या नियन्ता नहीं है | सभी संसारी जीव अपने कर्मो का फल समय आने पर अनुकूल या प्रतिकूल भोगते हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मो के लिये स्वयं उत्तरदायी होता है, वह जानता है कि वह अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ भावों का फल खुद ही भोगने वाला है। पाप के फल में उसे कोई शरण देने वाला नहीं हैं अत: वह अशुभ कर्मों से यथाशक्ति बचने का प्रयत्न करता है तथा प्रतिकूलताओं में स्वयं कृत कर्मो का ही प्रतिफल जानकर शान्तचित्त ही रहता है।
सुखी होना, दुखी होना – यह अपने स्वयं के कर्मों का फल है | उसी कर्म से उत्पन्न किया जानेवाला सुख-दुख कर्मफल है। दूसरा मुझे सुखी या दुखी करता है – यह विचार ही वह करता है जो तत्त्वज्ञान से शून्य है | पर पदार्थ तुम्हें सुखी या दुखी नहीं कर सकते हैं; वे मात्र सुख या दुःख के निमित्त है | इस प्रकार का श्रद्धान होने पर हमें जीवन में दूसरों को दोष देने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है और स्वयं के कर्म सुधारने की समझ बढ़ती हैं | प्रत्येक मनुष्य अपना-अपना कर्म फल भोगता है, दूसरे का नहीं अतः मेरे जीवन में जो दुःख या प्रतिकूलता हैं उसका मूल कारण दूसरा नहीं हैं, वह तो मात्र निमित्त हैं | ऐसा चिन्तन करने से मनुष्य व्यर्थ ही तनावग्रस्त नहीं होता और अवसाद से बचा रहता हैं |
सर्वज्ञता का सिद्धांत
जैन दर्शन सर्वज्ञता के सिद्धान्त को मानता है | सर्वज्ञ पर विश्वास करने वाला कभी तनावग्रसित हो ही नहीं सकता | वीतरागी सर्वज्ञ परत्मात्मा के अतीन्द्रिय ज्ञान में तीनों लोकों के प्रत्येक द्रव्य की तीनों कालों (भूत, भविष्य, वर्तमान) की प्रत्येक पर्याय को प्रत्यक्ष जानते हैं |कहा गया है कि वे सर्वज्ञ सम्पूर्ण द्रव्यों व उनकी पर्यायों से भरे हुए सम्पूर्ण जगत् को तीनों कालों में जानते हैं। तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं।आज से २६०० वर्ष पहले भगवान महावीर सर्वज्ञ हो गये थे, उनके केवलज्ञान में भविष्य भी झलक गया था | तत्त्वज्ञानी सम्यग्दृष्टि मनुष्य इस बात पर अटल श्रद्धान रखता है -‘जो होना है सो निश्चित है, केवल ज्ञानी ने गाया है’
अतः वही किसी भी घटना, परिस्थिति को लेकर आश्चर्य चकित नहीं होता और न परेशान होता है | फलस्वरूप वह हर प्रतिकूल – अनुकूल परिस्थिति की तैयारी पूर्व से ही कर चुका होता है | मैं जीवद्रव्य हूँ, मेरा हर परिणमन केवल ज्ञानी पूर्व में जान चुके हैं | अतः हर घटना निश्चित है, उसमें मेरा कुछ भी नहीं है | ऐसा विचार करके वह प्रत्येक पल निश्चिन्त रहता है, तनावग्रसित नहीं होता और न अवसाद में जाता है |
वह तो यही विचार करता है –
‘जो जो देखी वीतराग ने, सो सो होसी वीरा रे
अनहोनी सो कबहूँ न होसी, काहे होत अधीरा रे’
अकर्तावाद का सिद्धांत
जैन दर्शन अकर्तावादी दर्शन है | सारी दुनिया कर्तृत्व के नशे में चूर है | जैन दर्शन ईश्वर को भी सृष्टि का रचयिता नहीं मानता तथा यह भी मानता है कि, ‘एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता’| प्रत्येक द्रव्य अपना स्वतन्त्र परिणमन कर रहा है | जो कोई भी कर्ता है वह अपने स्वभाव का ही कर्ता है किन्तु परभाव में निमित्त होने पर भी, परभाव का न कर्ता है और न भोक्ता ।अकर्तावाद मनुष्य की पराश्रय बुद्धि में सुधार करता है तथा दूसरा मेरा कुछ भला या बुरा कर सकता है – यह मिथ्या मान्यता दूर हो जाती है | फलस्वरूप व्यर्थ का तनाव – अवसाद से मनुष्य दूर रहता है |
इनके अलावा भगवान् महावीर ने चित्त की निर्मलता व एकाग्रता को बढ़ाने के लिये अनेक उपायों की चर्चा की है जो न केवल कषायों में कमी लाते हैं वरन् वे चित्त की एकाग्रता व तत्वज्ञान में वृद्धि करके तनाव मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इनमें सस्वर पूजन-पाठ-भक्ति-स्वाध्याय-मंत्रजाप व सामायिक-ध्यान-योग आदि कार्य प्रमुख हैं। जैन योग पद्धति में कायोत्सर्ग, प्राणायाम, आसान तथा ध्यान कि क्रियायें गहरे अवसाद से बाहर निकालने कि सामर्थ्य रखती हैं |
अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि प्रात: नित्य कर्म से निवृत्त होकर किये जाने वाले सस्वर देव पूजन-भक्ति, स्तुति पाठ शरीर में कोलेस्ट्रोल व हानिकारक द्रव्यों की मात्रा में कमी करते हैं। इन क्रियाओं के माध्यम से शरीर में कषायों को बढ़ाने वाले हानिकारक हारमोन्स का स्राव बन्द हो जाता है तथा फेफड़े, हृदय व पाचन तंत्र की क्रियाशीलता में वृद्धि होकर हानिकारक विजातीय तत्वों को शरीर से बाहर निकलने में मदद मिलती है। सस्वर वाचन से तंत्रिका तंत्र व रक्तवह नाड़ियों का लचीलापन बढ़ता है जो शरीर की तनाव सहन करने की क्षमता को बढ़ाता है।
इसके साथ ही ध्यान या सामायिक का तनाव घटाने में महत्वपूर्ण योगदान हैं। ध्यान के लाभों से समस्त ही विश्व आज सुपरिचित है। जैन दर्शन में कहा गया सामायिक ध्यान का ही एक रूप है जिसमें वस्तु स्वरूप का चिन्तन करते हुये बाह्य जगत के विषयों से मन को हटाकर उसे आत्म स्वरूप में एकाग्र करने का अभ्यास किया जाता है। इस क्रिया में चित्त की चंचलता व शरीर की अनेकानेक क्रियाओं में मन्दता आ जाती है, शरीर पूर्णत: शिथिल हो जाता है किन्तु ज्ञान पूर्णत: जाग्रत रहता है।
इस ध्यान या सामायिक का प्रभाव शरीर व मन के तनावों को घटाने की दृष्टि से अद्वितीय है, उत्कृष्ट ध्यान को मुक्ति का कारण कहा गया है।
स्वाध्याय भी तनाव को घटाने का एक महत्वपूर्ण साधन है।तीव्र कषायी व्यक्ति भी यदि स्वाध्याय करता या सुनता है तो उसकी कषाय में शनै: शनै: तत्वज्ञान-वस्तु स्वरूप के यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होने से कमी आने लगती है। वास्तविक वस्तु स्वरूप का ज्ञान होने से व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में तनाव ग्रस्त नहीं होता तथा प्रतिकूलताओं में भी वह समाधान का मार्ग निकाल ही लेता है। कहा भी गया है कि ‘स्वाध्याय: परमं तप:` तथा ज्ञान ही सर्व समाधान कारक है। इस प्रकार स्वाध्याय से अर्जित ज्ञान तनाव मुक्ति के लिये उत्कृष्ट समाधान प्रस्तुत करता है तथा तनाव रहित जीवन की कला सिखाता है।
अतः हमारा निवेदन है कि प्राचीन शास्त्रों में प्रतिपादित इन शाश्वत सिद्धांतों को अच्छे से समझ लें तथा महामारी और लॉक डाउन के समय में हमेशा वस्तु स्वभाव और शुद्ध आत्म तत्व का चिंतन करते हुए तनाव मुक्त रहें ।
— डॉ. अनेकान्त कुमार जैन